अभिमान का सिर नीचा !

आर. डी. भारद्वाज "नूरपुरी"

एक बार की बात है कि श्रीकृष्ण भगवान द्वारका में अपनी रानी सत्यभामा के साथ सिंहासन पर विराजमान थे, उनके पास ही गरुड़ और सुदर्शन चक्र भी बैठे हुए थे। तीनों के चेहरे पर दिव्य तेज झलक रहा था। न जाने कहाँ से रानी सत्यभामा के मन में एक अजीब सी बात आ गई, और बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने श्रीकृष्ण से पूछा, "हे प्रभु ! आपने त्रेता युग में राम के रूप में अवतार लिया था और तब सीता जी आपकी पत्नी थीं। क्या वे मुझ से भी ज्यादा सुंदर थीं?" द्वारकाधीश समझ गए कि सत्यभामा को अपने रूप और सुंदरता का अभिमान हो गया है। थोड़ी देर के लिए तो वह ख़ामोश रहे कि रानी को अपने आप ही अपनी गलती का एहसास हो जायेगा और वह इस ग़लत फहमी को भूल जाएंगी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका और रानी ने कुछ देर बाद फिर वही सवाल कुछ और शब्दों में दोहरा दिया ! स्त्री हठ और सुन्दरता का सुमेल सा उनको अन्दर ही अन्दर सुगबगाहट सी पैदा किये जा रहा था और उनको परेशान कर रहा था । तभी गरुड़ से भी नहीं रहा गया और उसने भी पूछ लिया, "हे भगवान ! क्या दुनियाँ में मुझ से भी ज्यादा तेज गति से कोई उड़ सकता है ?"

दोनों ओर से ऐसे प्रश्न दागे जा रहे थे तो भला सुदर्शन चक्र कैसे खामोश रहते ? तो इस तरह सुदर्शनचक्र से भी रहा नहीं गया और उन्होंने भी सवाल खड़ा कर दिया, "हे भगवान ! मैंने बड़े-बड़े युद्धों में आपको विजय श्री दिलवाई है। क्या संसार में मुझ से भी शक्तिशाली कोई है ?" भगवान मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। वे जानते थे की कभी कभी शालीनता और विनम्रता पर अहंकार या अभिमान हॉवी हो जाता है, और इस वक़्त उनके इन तीनों भक्त भी इसी बीमारी से पीड़ित हो गए हैं । और इनका अभिमान नष्ट कर देना चाहिए, नहीं तो यह बीमारी आगे चलकर इनको और भी परेशान करेगी और इनको गिरावट की ओर ले जाएगी ।

ऐसा ही सोचकर उन्होंने गरुड़ से कहा, "हे गरुड़! तुम शीघ्र ही हनुमान के पास जाओ और उनको कहना कि भगवान राम, माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।" गरुड़ भगवान की आज्ञा पाकर हनुमान जी को लाने चले गए। इधर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि देवी आप सीता जी के रूप में तैयार हो जाएं। और स्वयं द्वारकाधीश ने राम का रूप धारण कर लिया। मधुसूदन ने सुदर्शन चक्र को आज्ञा देते हुए कहा कि तुम महल के प्रवेशद्वार पर पहरा दो। और ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई भी प्रवेश न करे। भगवान की आज्ञा पाकर चक्र महल के प्रवेशद्वार पर तैनात हो गए।

गरुड़ ने हनुमान के पास पहुँच कर भगवान श्री कृष्ण का सन्देश दिया, "हे वानर श्रेष्ठ ! भगवान श्री राम, माता सीता जी के साथ द्वारका में आपसे मिलने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं। अतः आप अभी मेरे साथ द्वारका पुरी चलें। मैं आपको अपनी पीठ पर बैठाकर शीघ्र ही वहां ले जाऊंगा।" हनुमान ने विनम्रता पूर्वक गरुड़ से कहा, आप चलिए, मैं आपके पीछे - २ आता हूं। गरुड़ ने सोचा, पता नहीं यह बूढ़ा वानर कब पहुँचेगा, कितनी देर लगाएगा ? खैर, मैंने भगवान का सन्देश दे दिया है और अब मैं उनके पास चलता हूँ । यह सोचकर गरुड़ बड़ी तेजी से द्वारका की ओर उड़ने लगे ।

पर यह क्या, महल में पहुँचकर गरुड़ देखते हैं कि हनुमान जी तो उनसे पहले ही महल में प्रभु के सामने बैठे हैं। गरुड़ का सिर लज्जा से झुक गया, क्योंकि जिसको उसने बूढ़ा , सुस्त और हिम्मत-विहीन समझ रहा था, वह तो उनसे भी तीव्र गति से उड़कर उस से भी पहले ही वहाँ पहुँच चूका था । तभी श्रीराम ने हनुमान से सवाल किया ,"पवन-पुत्र ! तुम बिना किसी की आज्ञा के महल में कैसे प्रवेश कर गए? क्या तुम्हें किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं?" हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए सिर झुका कर अपने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकाल कर प्रभु के सामने रख दिया और अपना उत्तर दिया , "प्रभु ! आपसे मिलने से मुझे इस चक्र ने रोका तो था, सवाल जवाब करने में समयः नष्ट न हो, इसलिए मैंने इसे एक मिनट में ही मुंह में रख लिय और मैं आपसे मिलने आ गया। आपके दर्शन करने की मुझे भी सच में इतनी तड़प और लालसा थी कि मेरे लिए और इन्तज़ार करना थोड़ा मुश्किल हो रहा था, इस लिए मेरे से थोड़ी गुस्ताखी हो गई, आप दयालु हैं, कृपालु हैं, मुझे क्षमा करें !"

भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे। फिर थोड़ी देर बाद हनुमान जी ने हाथ जोड़ते हुए श्रीराम से प्रश्न किया - "हे प्रभु ! आज आप मेरी एक और गुस्ताख़ी माफ़ करें, आज आपने माता सीता के स्थान पर किस दासी को इतना सम्मान दे दिया कि वह आपके साथ ही सिंहासन पर विराजमान हैं ?" श्री हनुमान जी के मुख से अपने बारे में ऐसे लफ़ज़ सुनकर रानी सत्यभामा को बहुत गुस्सा आया लेकिन उन्होंने अपना गुस्सा केवल आँखों से ही व्यक्त किया, किसी न किसी तरह अपने शब्दों को नियन्त्रण में रखने में सफ़ल हो पाईं । लेकिन थोड़ी ही देर बाद उन्होंने हनुमान जी से रुष्ट भाव से सवाल किया, "हनुमान जी ! आपने देखने और समझने में इतनी बड़ी भूल कैसे कर दी? क्या आप मेरी सुन्दरता से भी नहीं पहचान पाए , मैं तो यहाँ की रानी हूँ !" सुनकर हनुमान जी बड़े ही विनम्र भाव से बोले , "क्षमा चाहता हूँ देवी जी ! मैंने तो हजारों बार माता सीता जी के दर्शन किये हैं , उनको मनमोहिनी सुन्दर छवि अभी भी मेरी आँखों में बसी हुई है, माता सीता जी बढ़कर सुन्दर तो मैंने पूरी दुनियाँ में आजतक किसी देवी को नहीं देखा !"

हनुमान जी के मुख से सीता जी की सुंदरता का ऐसा बखान सुनकर सत्यभामा हक्की बक्की रह गई और उनके मन के आँगन में जो अहंकार का पौदा पनप रहा था , जिसकी वजह से वोह अपने आप को दुनियाँ की सबसे सुन्दर नारी होने की गलतफहमी पाल रही थी, वह गलती क्षण भर में भंग हो गई , और उनकी सुंदरता का अहंकार पलभर में चकना चूर हो गया। हनुमान जी के वहाँ पधारने से रानी सत्यभामा, सुदर्शन चक्र व गरुड़ तीनों का गर्व भी चूर-चूर हो चुका था। वे सबी भगवान की लीला समझ गए थे। तीनों की आँख से आँसू बहने लगे और वे भगवान श्री कृष्ण के चरणों में झुक गए। सचमुच बड़ी अद्भुत लीला है प्रभु की। अपने किसी भक्त्त का अहंकार से नाता कैसे तोड़ना है, उसकी भटकती हुई बुद्धि और विवेक को समय पर ही सही रस्ते पे कैसे लाना है, यह खेल उनसे अच्छा कौन जान सकता है ?

जब इन तीनो का अभिमान चूर चूर हो गया तो इन तीनों के सामने हम अपने आपको किस जगह पाते है? गुरु प्यारियो ! एक बात हमेशा के लिए पल्ले बाँध लेना , पक्के हुए फ़ल की तीन निशानियाँ होती है , एक तो वह अपना हठधर्म त्यागकर नरम हो जाता है, दूसरा वह अपना रंग बदल लेता है, तीसरा - वह अपना खट्टा स्वाभाव छोड़कर मीठा स्वाद प्राप्त कर लेता है, जिसमें यह तीनों गुण न आए हों, समझ लेना कि वह फल पूरी तरह पक्का हुआ नहीं हो सकता, बिलकुल ठीक इसी प्रकार से गुरु ज्ञान से परिपक्व इन्सान में भी तीन गुण आने अति आवश्यक हैं - पहली पहचान यह है कि उस व्यक्ति में विनम्रता आ जाती है , दूसरी - उसकी बाणी में मिठास आ जाती है और तीसरी और अंतिम बात , उसके चेहरे से आत्मविश्वास का रंग साफ़ तौर पे झलकता है, जोकि किसी भी प्रस्थिति वह डोलता नहीं है । मृत्यु का भय भी उसके मन, दिलो - दिमाग़ से छू मन्तर हो जाता है, और ऐसा इंसान घमंड या अहंकार को अपने पास भी फ़टकने नहीं देता और वह हमेशा अपने गुरु के विचारों को ही तरज़ीह देता है । हो सकता है बाकी लोगों की तरह उसकी जिंदगी में भी दुःख या परेशानियाँ आएँ , लेकिन ऐसा इन्सान ऐसी प्रस्थितियों से विचलित नहीं होता, क्योंकि उसे गुरु पर पूर्ण विश्वास होता है, और वह यह भी जानता है कि उसका गुरु समय आने पर उसे ऐसे हालातों से अपने आप ही निकाल लेंगे । एक गुरु ऐसा करता भी है , क्योंकि उसे अपने भक्त की लाज और और भक्त के दिल में अपनी श्रद्धा और विश्वास भी बनाए रखना होता है ।

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