हजारों वर्ष पहले की बात है कि मध्य प्रदेश के जंगलों के पास एक कबीला रहता था। उस कबीले का मुखिया भी कबीले के बाकी लोगों को तरह ही थोड़ी खेतीबाड़ी और जंगली जानवरों का शिकार करके अपने परिवार का भरण-पोषण करता था । उस कबीले के सरदार की एक बेटी थी - शबरी । शबरी जब शादी की उम्र की हुई तो उसके लिए अपने जैसे ही एक भील परिवार के युवक से उसका रिश्ता पक्का कर दिया गया । कुछ ही दिनों में शादी की तैयारियाँ शुरू हो गई । एक दिन शाम को जब घर के सभी सदस्य खाना खाने के पश्चात् गपशप कर रहे थे, तो शबरी ने अपने पिता से पूछा कि उसकी शादी में खाना कैसा बनाया जाएगा । पिता ने ज़वाब दिया कि बिल्कुल वैसा ही जैसा कि हमारे कबीले की शादियों में खाने का रिवाज़ है - अर्थात् 5-7 भेड़-बकरियाँ काट दी जाएंगी और बारातियों को मांसाहारी भोजन परोसा जाएगा । क्योंकि शबरी को जीव हत्या पसन्द नहीं थी, इसीलिए उसने अपनी तरफ से सुझाव दिया कि क्यों न हम बाकी कबीले से हटकर भोजन तैयार करें - जिसमें रोटी, दाल-चावल, सब्जी इत्यादि तो हों, लेकिन मांस न हो । लेकिन उसके पिता ने सुझाव ये कहकर ठुकरा दिया कि हमारे कबीले के रिवाज़ वर्षों से चले आ रहे हैं और फिर वह कबीले का मुखिया भी है, अतः कबीले के रीति-रिवाज़ों का सम्मान करना और उन्हें सच्चे मन से निभाना उसकी ज़िम्मेदारी भी है। ऐसे परिवार के सदस्यों में बारात के परोसे जाने वाले भोजन पर काफी समय तक चर्चा चलती रही । शबरी ने उनको समझाने की बहुत कोशिश की कि केवल अपनी जीभ के स्वाद के लिए जीव हत्या करना एक ऐसा पाप है, अपराध है, जिसे हमें हमेशा बचना चाहिए,लेकिन जब शबरी ने देखा कि उसके घर में कोई भी सदस्य मांसाहारी भोजन का लोभ त्यागने को तैयार नहीं है, तो कुछ दिनों बाद शबरी रात के अंधेरे में अपने घर से भाग गई ।
घर से भाग कर कुछ दिन शबरी इधर-उधर भटकती रही । क्योंकि उसे बचपन से शिक्षा प्राप्त नहीं हुई थी तो उसने सोचा कि क्यों न किसी ऐसे स्थान पर शरण ली जाए, जहां पर गुरूकुल भी हो । ऐसे करते-करते शबरी आसपास के कई गुरूकुलों में गई, लेकिन उसकी कहीं भी बात नहीं बनी । वो जहां भी जाती, वहीं पर उसकी जात पूछी जाती, उसका खानदान पूछा जाता और जब वह अपने भील कबीले का नाम बताती, अपना गाँव बताती तो उसे वहां से खदेड़ दिया जाता, क्योंकि उस वक्त भील कबीला, नीची जाति का माना जाता था और उनको शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था । ऐसे ही भटकते-भटकते शबरी को बहुत दिन बीत गए । न उसके रहने का कहीं प्रबन्ध हो सका और न ही शिक्षा प्राप्ति का कोई साधन बन सका । ऐसे ही भटकते हुए एक दिन वह एक साधु के सम्पर्क में आई और उस साधू ने उसे समझाया कि अगर उसके दिल में शिक्षा ग्रहण करने की इतनी ही तीव्र इच्छा है तो उसे मतंग ऋषि के आश्रम में चले जाना चाहिए । तो ऐसे पता करके शबरी मतंग ऋषि के आश्रम में पहुँची । ऋषि महाराज ने उसकी पूरी दास्तां सुनकर, अपने आश्रम में पनाह दी और उसे अपनी बेटी की तरह अपने पास रखा । शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ शबरी ने अपने कामकाज की बदौलत थोड़े ही दिनों में मतंग ऋषि का मन जीत लिया । लेकिन वहां आश्रम के आसपास रहने वाले बाकी साधुओं को ये बात पसन्द नहीं आई कि कोई भील जाति की कन्या वहां उसके आश्रम में रहे, क्योंकि वह साधु भी उस वक्त की परिचलत जाती प्रथा और इससे जुड़ी हुयी तमाम गलत किस्म की धारणाओं और रूढ़िवादी विचारों से गृहस्त थे ।
ऐसे ही वहां रहते-रहते शबरी को कई वर्ष बीत गए । अब मतंग ऋषि भी बूढ़े हो गए थे और उनकी तबियत भी खराब रहने लगी । जब ऋषि महाराज का अंतिम समय नज़दीक आया तो उन्होंने शबरी को समझाया, "देखो पुत्री ! मेरा ब्रह्मलीन होने का समय नज़दीक आ गया है, मेरे जाने के पश्चात् अगर तुम्हें कोई तुम्हारी जात-पात का नाम लेकर तुम्हें अपशब्द बोले, तो भी तुम बुरा नहीं मानना, यहीं पर टिके रहना, आश्रम में बाकी लोगों के साथ ही मिल-जुलकर रहना ।" जब शबरी ने उनसे अपने भविष्य के बारे मे पूछा, तो ऋषि ने उत्तर दिया कि एक दिन भगवान राम वहां आएंगे और वह ही तुम्हारा कल्याण करेंगे । इतना समझाते ही ऋषि महाराज ने अपने प्राण त्याग दिए ।
जहां शबरी के दिल में अपने पिता तुल्य मतंग ऋषि के जाने का दुख था वहीं पर दूसरी ओर भगवान राम के आने का इन्तज़ार भी उसकी खुशी का सबब बनने लग गया । वह प्रतिदिन उठते-बैठते, सोते-जागते भगवान राम के बारे में ही चिन्तन करती रहती - वो कब आएंगे, कैसे होंगे और जब उसकी उनसे भेंट होगी, तो वह उनसे ये कहेगी, वो कहेगी, उनके खाने के लिए वह यह परोसेगी या वो परोसेगी , वगैरह-वगैरह ।
मतंग ऋषि के आश्रम से थोड़ी ही दूरी पर एक बहुत प्यारी सी झील थी जो कि पम्पासर नाम से प्रसिद्ध थी । आसपास के सभी लोग अपनी पानी की ज़रूरतों की पूर्ति के लिए वहीं जाया करते थे । उस गांव की बाकी औरतों की तरह शबरी भी वहां से पानी लेने जाती थी । एक दिन वह रोज़ की तरह उस झील पर गई । वह अभी पानी भरने के लिए अपना घड़ा धोह रही थी कि उसने थोड़ी ही दूरी पर एक साधू को झील में मंत्रोच्चारण करते हुए देखा । शबरी को देखते ही उस साधु ने अपना माथा सिकोड़ लिया और उसे गुस्से से देखने लगा । शबरी ने उसे नज़र-अंदाज़ करते हुए अपना काम जारी रखा । उससे साधु का गुस्सा और भी भड़क गया और चिल्लाते हुए कहने लगा, " अरे नीच औरत ! तुझे कितनी बार कहा है, यह घाट एक पवित्र झील है, तू यहाँ मत आया कर । तेरे स्पर्श करने से इसका पानी अपवित्र हो जाता है । क्यों हमारी ज़िन्दगी खराब कर रही है, ये छोटी-सी बात तुझे समझ नहीं आती क्या, नासमझ औरत ?" सुनकर शबरी से भी नहीं रहा गया और उसने ज़वाब दिया, "जब भगवान किसी को जन्म देते समय किसी किस्म का मतभेद नहीं करते, तो आप कौन हो जन्म के आधार पर, या जात-पात के आधार पर अंतर करने वाले ?" शबरी की ज़ुबान ने ज़वाब सुनकर साधु और भी भड़क गया, दोनों में कुछ देर तक वाद-विवाद चलता रहा, और अंत में उस साधु ने झल्लाकर झील के किनारे पड़ा एक पत्थर उठाया और शबरी को ज़ोर से मारा । पत्थर शबरी की टांग पर लगा और उसमें से खून निकलने लगा । शबरी दर्द के मारे रोने लगी और खून बहते-बहते झील में जाने लगा । कहते हैं कि इस घटना के बाद झील का पानी लाल रंग का हो गया और इन्सानो के पीने के काबिल नहीं रहा । शबरी एक पवित्र रूह थी जो कि नेकदिली से अपने भगवान को याद किया करती थी और एक अज्ञानी साधु के उसे सताने और दुख देने की वज़ह से उस झील का पानी इतना खराब हो गया कि आसपास के सभी लोगों के लिए एक संताप बन गया ।
रोती चिल्लाती शबरी वापिस अपनी कुटिया में आ गई और उस ढोंगी साधु द्वारा दिए गए ज़ख्म पर मरहम-पट्टी करने लगी । ऐसे ही करते-करते बहुत दिन बीत गए, शबरी का ज़ख्म तो ठीक हो गया, मगर पम्पासर झील का पानी साफ नहीं हो सका । कुछ साधु संतों ने मिलकर झील के किनारे कुछ ऋषि-मुनियों से यज्ञ भी करवाया, लेकिन झील का पानी वैसे का वैसा ही रहा । कुछ अन्य लोगों से सेवाएं लेकर गंगा नदी से जल भी मंगवाकर उस झील में डलवाया गया, लेकिन स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हो सका । सभी परेशान थे, क्योंकि पानी का दूसरा स्रोत काफी दूर था । इन्सान तो क्या, जानवर भी परेशान रहने लगे, लेकिन जैसे कि एक प्रसिद्ध मुहावरा भी है, कि - जिस मर्ज का कोई इलाज न हो, उसका दर्द इन्सान को बर्दाश्त तो करना ही पड़ता है।
इस दुर्घटना को दो वर्ष बीत चुके थे कि एक दिन गांव वालों को पता चला कि पास के जंगलों में भगवान राम आए हैं । दरअसल, श्रीराम के वनवास के दौरान जब रावण सीताजी को अपहरण करके ले गया था, श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ सीता जी की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे, तो ऐसे ही कुछ लोग भगवान राम के पास गए और उनको अपनी पानी की समस्या बताई और उनसे अनुरोध किया कि वह पम्पासर झील पर आकर अगर कुछ उपाय करें, तो शायद झील का पानी फिरसे शुद्ध हो जाए । लोगों की विनती सुनकर श्रीराम जी अपने अनुज के संग वहां पहुँचे । लोगों के आग्रह करने पर उन्होंने झील में चरण भी डाले, कुछ मंत्र भी पड़े, लेकिन कुछ सफलता हाथ नहीं लगी । लक्ष्मण ने कहा, "भैया आप इस पानी में दो चार डुबकियाँ लगा लो, हाथ-मुँह धो लो, हो सकता है फिर पानी की पवित्रता वापिस आ जाए।" श्रीराम ने वह सब कुछ भी किया, लेकिन पानी को कुछ फर्क नहीं पड़ा ।
फिर भगवान राम ने वहां उपस्थित लोगों से पूछा कि यह पानी कब से ऐसा है ? लोगों ने बताया कि लगभग दो वर्ष पहले तो पानी बहुत बढ़िया था, बिलकुल साफ़ था, पीने लायक था , लेकिन एक साधु और शबरी की घटना के बाद ये अपवित्र हो गया था । तब श्रीराम ने गांव वालों को समझाया कि अब तो ये पानी केवल वह शबरी ही ठीक कर सकती है, और कोई नहीं । तत्पश्चात् श्रीराम ने गांव वालों को समझाया कि शबरी तो एक संत है, एक नेकदिल इन्सान है, बहुत बड़ी भक्त है, एक पवित्र आत्मा है, ऐसी पवित्र आत्मा के दिल को ठेस पहुँचाकर आप लोग सुख की कामना कैसे सकते हो ? जाओ, उस शबरी को बुलाकर लाओ, इस झील की पवित्रता का हल केवल और केवल उसके पास ही है ।
जब भगवान श्रीराम का संदेश लेकर एक आदमी उसकी कुटिया पर गया और उसने शबरी को बताया कि भगवान श्रीराम पम्पासर झील पर आए हैं और तुझे याद कर रहे हैं, तो शबरी के हर्षोल्लास का कोई ठिकाना न रहा । वह श्रीराम का नाम सुनकर थोड़ी पगला सी गई और नंगे पांव ही झील की ओर भागने लगी । वहां पहुँचकर शबरी श्रीराम को आंखों में आँसु लिए टुकुर-टुकुर निहारने लग गई । श्रीराम भी अपनी एक सच्ची भक्त को देखकर प्रसन्न मुद्रा में उसे देखते रहे । गांव के तमाम लोग भी हैरान-परेशान होकर तमाशा देख रहे थे कि, जिस भील औरत को अब तक कुछ साधु-संत भी नीच, अपवित्र इत्यादि शब्दों से ज़लील करते थे, लेकिन श्रीराम के दिल में भी उसके लिए कितनी ऊँची जगह है । कुछ देर श्रीराम को निहारने के बाद शबरी उनके चरणों में गिर गई और गिड़गिड़ाने लगी, " हे प्रभु ! मैं तो कब से आपकी राह देख रही थी, आप ने आने में इतनी देर क्यों कर दी ? प्रभु !" श्रीराम ने उसे समझाया कि प्रत्येक काम के करने या होने का उचित समय परम पिता परमात्मा ने पहले ही तय कर रखा है । कोई भी घटना या दुर्घटना हो, उसके होने पर या घटने की तिथि, समय और स्थान पहले ही निश्चित हो चुकी होती है, कालचक्र की रची और लिखी हुई घटनाओं पर इन्सान का कोई बस नहीं चलता । हमारे अधिकार में केवल अपने कर्म करना ही हैं । जहां तक हो सके, अच्छे कर्म करो, किसी का दिल न दुखाओ ।
तत्पश्चात् श्रीराम ने शबरी को उस तालाब में उतरने के लिए कहा । शबरी तो श्रीराम के दर्शन करते - 2 इतनी मंत्र-मुग्ध हो चुकी थी कि उसका इस तरफ कोई ध्यान हीं नहीं गया कि श्रीराम उसे तालाब में उतरने के लिए क्यों कह रहे हैं? वो तो जैसे उसके प्रभु उसे कह रहे थे, वह वैसे ही बस किए जा रही थी । तालाब में उतरकर शबरी ने पानी में हाथ-मुँह धोए और धीरे-धीरे किनारे पर आ गई । तब श्रीराम ने गांव वालों से कहा, "देखा आपने ! मैंने तालाब में हाथ-मुँह धोए, पानी वैसे का वैसा ही रहा । और अब शबरी तालाब में उतरी, तो उसकी "चरण धूल" भी तालाब में चली गई । एक सच्चे भक्त का दर्ज़ा अपने भगवान से कम नहीं होता । अब आप सभी देख लेना, कल सुबह तक ये तालाब का पानी भी पहले की ही तरह साफ़-पवित्र हो जाएगा । ये पानी इसलिए मैला हुआ था कि किसी अज्ञानी व्याक्ति ने शबरी जैसी एक पवित्र औरत का, एक सच्चे साधु का दिल दुखाया था।" फिर शबरी ने श्रीराम और उनके अनुज लक्ष्मण से विनती की कि वह दोनों उसकी कुटिया में पधारें । इस तरह श्रीराम व लक्ष्मण थोड़ी ही दूरी पर शबरी की कुटिया में पहुँचे । शबरी ने अपने सामर्थ्य अनुसार उनका स्वागत किया । उसने उनको वह बेर भी प्रस्तुत किए जो कि शबरी ने पास के जंगलों से इकट्ठे किए थे । शबरी ने श्रीराम से कहा, "प्रभु ! मैंने सभी बेर पहले से ही खुद चख के रखें हुए हैं, जो फीके अथवा कड़वे थे, वो मैंने फैंक दिए । आपके लिए केवल मीठे बेर ही रखे हैं । श्रीराम ने शबरी की भक्ति और स्नेह भरी भेंट स्वीकार की । लक्ष्मण ने उनको याद दिलाया कि वह बेर तो शबरी ने पहले ही झूठे कर रखे हैं, लेकिन श्रीराम ने ज़वाब दिया, "जो भी भक्त, सच्चे मन से, पूरी लगन से और अपनी मेहनत से अर्जित किए गए पदार्थों में से, सच्ची श्रद्धा और लगन से कुछ भेंट करता है, वह मझे स्वीकार्य है । मैं उसे आवश्य ग्रहण करूँगा ।"
खाना खाने के पश्चात् जाने से पहले श्रीराम ने शबरी से कहा, " मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ । कुछ मांगना चाहो, तो मांग लो । " शबरी ने उत्तर दिया, "हे प्रभु ! इतनी कृपा करना, मेरे दिल में, मेरे मन में हमेशा आपका ध्यान बसा रहे, आपकी भक्ति से मेरा तन-मन हमेशा आत्म-विभोर रहे । मेरी अंतिम सांसों तक मेरी यही इच्छा और दशा ऐसे ही बनी रहे, और कभी अनजाने में भी मुझसे से किसी का दिल न दुखे ।" श्रीराम ने हाथ उठाकर उससे आशीर्वाद दिया, "तथास्तु !" और ऐसे ही वे दोनों भाई शबरी से विदा लेकर ( सीता जी की खोज में ) अपने आगे के सफ़र के लिए चल पड़े । और पम्पासर झील का पानी अगले ही दिन पहले की तरफ फिर से साफ़ - सुथरा और पवित्र हो गया और वहां आने-जाने वाले प्रत्येक प्राणी को अपने निर्मल जल से तृप्त करने लग गया, उसकी प्यास बुझाने लग गिया ।