बिहार का विकास- मॉडल :भाग - २

                        
बिहार का विकास- मॉडल : भाग - १    भाग - २        भाग - ३ 

रीता  झा 

जहाँ तक आगे विकास की बात है तो विकास एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है । विकास के केवल आर्थिक ही नहीं बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक व नैतिक पहलु भी होते हैं। विकास की हमारी प्राचीन अवधारणा कहीं अधिक व्यापक थी इसमें केवल व्यक्ति के विकास की ही बातें नहीं थी । विकास की अवधारणा सभी-जड़ हो या चेतन-को आवृत्त कर व्याप्त थी । जहाँ तक चेतन की बात करें तो वह केवल व्यक्ति, समाज, देश  या विश्व के मानव की ही बातें नहीं थी, वह संसार के सभी जीवों-मनुश्य, पशु , पक्षी, कीट-पतंग - जितने भी गोचर एवं अगोचर प्राणी थे - उन सभी की बातें थीं । अगर हम जड़ की बातें करें तो वह हवा, पानी, धरती, आकाश, अन्तरिक्ष के विकास की भी बातें थीं और थीं जड़ तथा चेतन के बीच सेतु बनने की भी । इस ब्रह्माण्ड में हमारा एकल विकास संभव नहीं हो सकता क्योंकि हम सभी एक दूसरे से गूँथे हुए हैं । इसी सन्दर्भ में एक श्लोक  स्मरणीय है जो शांति वचन के समय बोला जाता है -

ऊँ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष, शांन्तिः पृथिवी शान्तिरापः   शान्तिरोशधयः शान्तिः ।
वनस्पतयः शान्तिर्विष्वे देवाः शान्तिब्र्रह्म शान्तिः सर्व, शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।।

अर्थात् व्यक्ति विशेष  की शांति  के लिए जल, पृथ्वी, अन्तरिक्ष इत्यादि में भी शांति  की आवश्यकता है.   आज के संदर्भ में विकास की इसी अवधारणा के तरफ पूरा विश्व धीरे-धीरे बढ़ता प्रतीत होता है । हम आर्थिक शक्ति एवं उन्नति प्राप्त करें परन्तु समाज, देश , विश्व  ही नहीं बल्कि प्रकृति से भी सामंजस्य स्थापित करें । पहले की तरह आजकल भी All Inclusive growth and development  की भी बातें हो रही हैं । एक साधारण उदाहरण से इसे समझा जा सकता है । हमारे यहाँ अपनी थाली में से भोजन का अग्रभाग गाय के लिये तथा बचे हुए का कुत्ते और कौवे के लिये निकालने की परम्परा   थी । बात तो छोटी सी है परन्तु इसके पीछे का भाव, अर्थ तथा प्रभाव गहरा था । भारत जैसे कृषि आधारित देश  के लिये जहाँ की कृषि जानवरों पर निर्भर करती है ऐसा करना विवेक संगत कार्य था । क्या आजकल की All Inclusive growth theory  में इस तरह की उदात्त अंतरंगता स्थापित करने की भी कोई भावना है जिससे कि हम अपनी प्रकृति के साथ भी सहर्ष रह सकें । आजकल जानवरों की रक्षा के नाम पर जंगलों से आदिवासियों को विस्थापित किया जा रहा हैं । यही आदिवासी सदियों से जंगल में रह रहे हैं । न तो इन्हें जानवरों से और न जानवरों को इससे कभी खतरा हुआ । पर यहाँ पर ये सभी बातें महत्वहीन हैं । विकास के नाम पर शोषण हो रहा है। विकास की पाश्चात्य  अवधारणा की जगह हमें प्राचीन भारतीय अवधारणा का चिन्तन मनन करते हुये अपनी आवष्यकता अनुरूप नई अवधारणा गढने की जरूरत है । फिलहाल हम बिहार के विकास की बातें करें - थोड़ा बहुत विकास तो बिहार में पिछले नीतीश जी की अगुवाई में जे डी (यू)-बी जे पी गठबंधन वाली सरकार में हुआ है जिसमें कानून व्यवस्था में तथा सड़क में विषेश सुधार दृश्टिगोचर हो रहा है । इसके साथ ही स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली इत्यादि सभी क्षेत्रों में विकास की शुरुआत हुई है। परन्तु इससे भी आगे बढ़कर बहुत कुछ करने की आवष्यकता है जिससे पूरे बिहार का सर्वांगीण विकास हो तथा पूरा प्रदेश पूर्णतया आत्मनिर्भर हो  और दूसरे प्रदेशो के लिए एक मिसाल भी । हिन्दुस्तान के सभी प्रदेश एक दूसरे से आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक, राजनीतिक मामलों में सर्वथा भिन्न हैं । अतः हमारे प्रदेश बिहार का माडल भी अपना अलग होना चाहिये - अपनी आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक, राजनीतिक स्थितियों को ध्यान में रखकर बनाया गया माडल ही कामयाब हो सकता है । विकास की प्राथमिकता नियत करना वैसे तो कठिन ही होता है और एक तरह से मुद्दों के  साथ नाइंसाफी भी । विकास खासकर आर्थिक विकास तो जीवन से एकदम जुड़ी हुई बातें होती हैं और जीवन की हर जरूरतें प्राथमिक ही होती हैं । फिर भी व्यावहारिक तौर पर तो प्राथमिकता तय करनी पड़ती है - खासकर जहाँ हमारा बिहार आर्थिक तौर पर सभी प्रदेशों की तुलना में अंतिम पायदान पर है । वह प्राथमिकता क्या हो इसकी ही विवेचना यहाँ पर की गई है -

भ्रष्टाचार : भ्रष्टाचार विकास की जड़ पर ही प्रहार करता है अतः विकास को जीवित  रखने और उसकी रफ्तार तेज करने के लिए भ्रष्टाचार ही जड़ों पर सबसे पहले प्रहार करने की आवष्यकता है । ऐसा हम सभी मानते हैं कि अगर किसी योजना के तहत 100 रूपये का आवंटन किया जाता है तो आम जनता तक यह आते-आते 20 रूपये हो जाता है अर्थात् 80 रूपये भ्रष्टाचारियों के हाथों में चला जाता है। अगर किसी प्रदेश का योजना व्यय 14,000 करोड़ रूपया हो तो इसका सीधा अर्थ हुआ कि इस योजना व्यय में काम केवल 2,800.00 करोड़ रूपये का ही हुआ होगा तथा शेष 11,200 करोड़ रूपये भ्रष्टाचारियों की जेब में। वास्तविकता कितनी है ? इसके बारे में कुछ नहीं कह सकते । यह तो केवल एक अनुमान है और इस पर प्रदेश की जनता भी सहमत हैं।  ये बातें केवल एक प्रदेश के लिए नहीं है बल्कि ये बातें समूचे हिन्दुस्तान के लिए भी है। यह अत्यन्त शोचनीय तथा भयावह स्थिति है । 

भारत में भ्रष्टाचार किस हद तक है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देष के भ्रष्ट लोगों ने 462 अरब डालर की राशि स्विट्जरलैंड के बैकों या कर चोरी की ऐसी ही अन्य पनाहगाहों में जमा कर रखी है। अन्तराष्ट्रीय संगठन ‘ट्रांसपरेंसी इंटर नेशनल की भारत की कार्यकारी निदेशिका अनुपमा झा ने कहा कि गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वालों को 11 चुनिदां बुनियादी सेवाएं हासिल करने के लिए एक वर्ष में 900 करोड रूपये की रिश्वत देनी पड़ती है ।  यह तो क्रुरतम  अपराध है। अमानवीय कृत्य है। इसे तत्क्षण रोकना चाहिए । भ्रष्टाचार भ्रश्टाचार रोकने मात्र से ही हम हिन्दुस्तानियों  की जेब  से अनुचित रूप से  निकलने वाली यह राशि 900 करोड़ रूपये रूक जायेगी, तथा हमारी योजना व्यय का पूरा-का-पूरा उपयोग हो जायेगा। अतः भ्रष्टाचार रोकना ही निवेश (Investment) बढ़ाने  के समान है। जिस अनुपात में भ्रष्टाचार  रूकेगा, उसी अनुपात में हमारी प्रगति होगी । भ्रष्टाचार पर अंकुष लगाने के लिये और भी तमाम कदम उठाने की जरूरत है । मनरेगा में भ्रष्टाचार है, तो इन्दिरा आवास आबंटन में भी । बी पी एल हो या ए पी एल, सूची बनाने में ही व्यापक गड़बड़ी की जा रही है । जन वितरण प्रणाली में अलग तरह का भ्रष्टाचार है । गरीबों को अनाज ही नहीं मिलता । प्रखंड कार्यालय हो या थाना सभी भ्रष्टाचार के गढ़ हैं । किसी भी कर्मचारी के पास काम के लिये जाएँ  तो सभी घूस मांगते  हैं और कहते हैं क्या करें ऊपर पहुँचाना होता है । कौन है ऊपर जिसे यह पहुचाना होता है ? सरकार या आफिसर - अगर आफिसर है तो सरकार कार्यवाही कर सकती है लेकिन यदि सरकार है तो फिर कौन बचायेगा । भ्रष्टाचारी कहाँ पर हैं ? कैसे काम करते हैं ? इसे कैसे रोकना है ? इत्यादि बातें सभी को मालूम है। इसे रोकने का शासन तंत्र सरकार के हाथ में ही है। चाहिए बस एक दृढ़ राजनैतिक इच्छा-शक्ति जो कि इस सरकार में दृष्टिगोचर भी हो रही है। जनता ने आपको अपार समर्थन दिया है पर समर्थन जिम्मेदारी भी लाती है। भ्रष्टाचारियों के विरू़द्ध उठाये गये आपके हर कदम पर जनता की कड़ी नजर है । पब्लिक है सबकुछ जानती है। सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने किसी मामले में सही कहा है कि आम आदमी कहीं ज्यादा प्रबुद्ध है । यह मत समझिए कि यहाँ के लोग बेवकूफ हैं। बिहार सरकार जनता पर भरोसा कर भ्रष्टाचार के विरूद्ध कदम उठायें। जनता आप पर भरोसा कर रही है। सरकार केवल इतना ही ध्यान रखे - भ्रष्टाचारी बचे नहीं और निर्दोश फंसे नहीं । परित्राणाय साधूनां विनाषाय च दुश्टकृताम् । भ्रष्टाचारियों को घेर कर केवल पकड़ना ही जरूरी नहीं हैं इससे भी ज्यादा जरूरी है भ्रष्टाचारियों द्वारा लूटे हुए धन को फिर से सरकारी खजाने में लाने की अर्थात् जनता का पैसा जनता को देना। इस प्रयास में उठाया गया हरेक कदम स्वागत योग्य है। इस क्रम में सन् 2009 में बनाया गया कानून जिसमें भ्रष्टाचार करने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों की आय से अधिक सम्पत्ति को जब्त करने का प्रावधान है और जिसके तहत कार्यवाही भी शुरू हो गई है - स्वागत योग्य कदम है। क्या ऐसी ही कार्यवाही जनप्रतिनिधियों, कर चोरी करने वालों तथा अन्यों पर भी होगी ? क्या यह कार्य निश्पक्षतापूर्ण होगा ? यह आगे आने वाला समय ही  बताऐगा । अभी तक तो भरोसा है कि आगे भी ऐसा ही होगा।

अभी हाल में बिहार सरकार ने विधायक कोश को खत्म कर दिया है। यह एक अच्छा कदम है । विधायिका का कार्य है विधि विधान अर्थात् नियम कानून बनाना न कि कार्यकारी के कार्य को अपने हाथ में लेना । रोड बनाना, बाँध बनाना इत्यादि काम एम एल ए या एम एल सी का नहीं होता है । उनका काम है नौकरशाहों से काम लेने का, समुचित दिशा निर्देश देने का । परन्तु, अगर जनप्रतिनिधियों की प्रबल इच्छा हो ही जाये तो इसके विकल्प के बारे में विचार करने की भी जरूरत है। एक राय यह भी है कि इसके लिए एक स्वतंत्र कोश की स्थापना की जाय जिसमें सभी विधायकों (विधान सभा तथा विधान परिषद् ) के नाम से रूपया हो तथा पूरे विधानसभा तथा विधान परिषद्प के सभी क्षेत्रों का एक स्वतंत्र सर्वे इंडियन इंस्टिट्यूट आफ मैनेजमेंट द्वारा कराया जाय जिससे यह पता लग सके कि किन-किन क्षेत्रों में इस फंड का उपयोग कहाँ- कहाँ पर और किस क्रम में होनी चाहिए। इससे Organised development अर्थात् व्यवस्थित विकास होगा और जनप्रतिनिधियों पर पक्षपात का भी आरोप नहीं लगेगा। साथ ही जनप्रतिनिधि भी जनता को यह नहीं कहेंगे कि मेरी सरकार नही है या मैं मंत्री नहीं हूँ इसलिए कोई काम नहीं हो पा रहा है। जनता के साथ-साथ जनप्रतिनिधि भी उपेक्षित महसूस नहीं करेगें। जहाँ तक इस फंड के दुरूपयोग की बातें हैं तो इसके लिए भ्रष्टाचार निरोधक तंत्र को सशक्त  करना चाहिए। भ्रष्टाचार के निरोध का काम तो किसी भी सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए क्योंकि  भ्रष्टाचार  का पहला शिकार भूमिहीन खेतीहर मजदूर, छोटे व सीमांत किसान एवं हमारी सामाजिक व्यवस्था के अंतिम पायदान पर स्थित गरीब, शोषित, दलित तथा पीड़ित होते हैं। जिसकी सुरक्षा करना हरेक सरकार की पहली प्राथमिकता होती है। सम्पन्नों के द्वारा किया गया भ्रष्टाचार उनके लोभ को बढ़ाता है तो गरीबों को भूखमरी और अधिक गरीबी की ओर ढकेलता है। इस दिशा में त्वरित कार्यवाही की अपेक्षा है क्योंकि इस दिशा में की गई देरी एक तरफ कई भ्रष्टाचारियों को प्रेरित करती है तो दूसरी तरफ कई जरूरतमंदों की मुसीबतें भी बढ़ाती है। भ्रष्टाचार के बारे में तो बिहार सरकार को Zero tolerancce की त्वरित नीति अपनानी होगी। अतः बिहार सरकार द्वारा जारी रिपोर्ट कार्ड 2009 में उल्लिखित ‘‘ जो बिहार आज सोचता है कल देश    उसे अपनाता है’’ की जगह अब यह लिखा होना चाहिए कि ‘‘ जो बिहार अभी करता  है, कल देश उसके बारे में सोचना शुरू करता है’’ क्योंकि केवल सोचने से कई गुना अच्छा होता है सोच समझकर कार्य करना । अब कार्य करने का समय आ चुका है ।

कृषि तथा कृषि आधारित उद्योग: बिहार गाँवों का प्रदेश है। यहाँ की 85 प्रतिशत आबादी ग्रामीण है। यहाँ के सभी गाँव कृषि पर शत प्रतिशत निर्भर है । अतः यह कहना ठीक है कि बिहार पूरी तरह कृषि पर आधारित है। राज्य के बंटवारे के बाद कल - कारखाने झारखण्ड में चले गये। इस प्रदेश  को बाढ़ तथा सुखाड़ से प्रत्येक वर्ष लड़ना पड़ता है। जहाँ देश  में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या 28 प्रतिशत है वहीं बिहार में इनकी संख्या इससे दोगुनी लगभग 55 प्रतिशत है। देश  में प्रति व्यक्ति आय 44 हजार रूपये से ज्यादा है, जबकि बिहार में मात्र 14 हजार रूपये। बिहार में कृषि में निवेश पिछले 25 साल से हुआ ही नहीं है। एक अनुमान के अनुसार बिहार को सही तौर से विकसित करने के लिए चार लाख करोड़ रूपये की आवष्यकता है परंतु योजना आयोग से मिलते है केवल 21 हजार करोड़ रूपये। कैसे चलेगी सरकार ? ले देकर बचती है निवेश की बात। पर कृषि में निवेश  की संभावना क्षीण है क्योंकि कृषि बिहार में पूरी तरह घाटे का ही सौदा है और घाटे में कोई निवेश  नहीं करता। अतः बिहार सरकार को खुद ही कृषि क्षेत्र का मोर्चा संभालना होगा। बाढ़ रोकने के लिए भारत सरकार से मिलकर नेपाल सरकार से बात करनी होगी। सुखाड़ रोकने के लिए नहर की बदहाल स्थिति को सुधारना तथा बिजली का उत्पादन बढ़ाना होगा। बिजली उत्पादन के परम्परागत उपायों के साथ ही गैर परम्परागत स्रोतो यथा सोलर, बायो गैस इत्यादि स्रोतो से कुल ऊर्जा जरूरत का कम से कम २० % उत्पादन करने का लक्ष्य रखा जाये। इसमें लागत भी कम है, रा मैटेरियल भी उपलब्ध है तथा जहां पर पारम्परिक बिजली नहीं पहुंची है वहाँ भी इसकी शुरुआत कर सकते हैं । इसके लिए केन्द्र के गैर पारंपरिक ऊर्जा मंत्रालय से बात करनी चाहिए। प्रयास करने पर इन क्षेत्रों में निवेश हो सकता है।


हरेक ब्लाक के कृषि भूमि की प्रकृति का अध्ययन कर अलग-अलग  कृषि  योजना बनानी होगी तथा इन्हीं  कृषि -योजना को ध्यान में रखकर हरेक ब्लाक के लिए  कृषि  आधारित उद्योगों विषेशकर खाद्य-प्रसंस्करण उद्योग ( Food Processing Industries) तथा Dairy farming को बढ़ावा देना होगा। तभी  कृषि  तथा  कृषि आधारित उद्योग एक दूसरे के पूरक के रूप में काम करेंगे।  कृषि  आधारित उद्योगों में किसानों की भागीदारी पूर्णतया सुनिश्चित  होनी चाहिए तथा इसके लिए सरकार को आगे आना चाहिए। सब्जी तथा फल के उत्पादन में बिहार पूरे देश  में तीसरे स्थान पर है अतः प्रदेश सरकार को खुद पहल कर दिल्ली या अन्य मैट्रो शहरों में इन्हें भेजने का प्रंबध करना चाहिए जिससे किसानों को अधिक से अधिक मूल्य मिले। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्री  ने राज्यसभा में बताया कि वर्तमान में देश  में प्रसंस्करण  का स्तर करीब 10 फीसद  होने का अनुमान है जिसमें फल तथा सब्जियों का प्रसंस्करण स्तर 2.2 फीसद होगा। अमेरिका मे यह स्तर करीब 65 प्रतिशत तथा फिलपींस में 78 फीसद होने का अनुमान है। साथ ही पांच नए खाद्य पार्कों के लिए स्थानों का चयन होना है। इसमें बिहार सरकार को पुरजोर प्रयास करना चाहिए जिससे अधिक से अधिक पार्को का यहां पर निर्माण हो। भारत सरकार ने भी यह माना है कि फसल कटने के बाद सचांलन के विभिन्न स्तरों पर देश में होने वाली वर्तमान  कृषि  उपज की करीब 3 खरब रूपये की बरबादी होने का अनुमान है। अंतर्राश्ट्रीय व्यापार सांख्यिकी के मुताबिक  कृषि  उत्पादों के वैष्विक व्यापार में भारत का हिस्सा मात्र 1.4 फीसद है तथा चीन का 3.5 फीसद तो ब्राजील का 4.5 फीसद।  खाद्य तथा फल -प्रसंस्करण उद्योग  में निवेश की बहुत अधिक संभावना है, अतः किसानो के हित में नीति बनाकर निवेश सुनिष्चित करनी चाहिए। बर्बादी रोकने के लिए cold storage का भी निर्माण होना चाहिए।   इसके लिए Public-Private partnership होना चाहिए , फल और फ़ूड प्रसंस्करण उद्योग में किसानो को ही प्राथमिकता मिलनी चाहिए। इस क्षेत्र में ये प्रयास कृषि को उद्योग से जोड़ने में अहम् होगा और तभी कृषक तहत कृषि की दयनीय स्थिति सुधरेगी। इस क्षेत्र में ये प्रयास  कृषि  को उद्योग से जोड़ने में अहम होगा और तभी कृशक तथा  कृषि  की दयनीय स्थिति सुधरेगी। इस कार्य में बाबा रामदेव द्वारा यू पी  में अच्छी पहल हुई है। परन्तु यह सावधानी रखनी जरूरी है कि हमारे किसानों की भूमि किसी भी हाल में किसानों के हाथ में ही रहे। आजकल बड़े-बड़े उद्योगपतियों, कारपोरेट सैक्टरों की नजरें  कृषि  योग्य भूमि पर रही है । ये किसानों तथा खुद प्रदेश  के लिए समस्याओं को दूर करने की जगह नित-नई आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक समस्यायें खड़ी करते है । ये बड़ी कम्पनियाँ जनता के प्रति जिम्मेदारी का रवैया नहीं अपनाते । वे आदमी की जरूरतों को लेकर समाज के प्रति संवेदनशील नहीं होते । हर एक आदमी उनके लिये एक कमोडिटी की तरह होता है। वे केवल अधिक-से-अधिक लाभ लेने का प्रयास करते हैं । प्राकृतिक संसाधनों हवा, जल, मिट्टी इत्यादि को प्रदूषित आस पास के लोगों को बीमार तथा लाचार कर लाभ लेते हैं और कुछ दिनों के बाद अपनी इकाई को बीमार घोषित कर दूसरी जगह चले जाते हैं । जनता अपने हाल पर रोती रहती है क्योंकि उसके हाथ से उसका जमीन, घर तथा रोजगार तीनों छिन जाता है ।  अगर सरकार  कृषि  तथा  कृषि  आधारित उद्योग धंदों में सफल होती हैं तो हमारे प्रदेश की 50 से 60 प्रतिशत लोगों को जो खेती पर निर्भर हैं पूर्ण रोजगार मिलने की संभावना हो जायेगी ।  इसी तरह से अन्य क्षेत्रों में संभावनाओं को देखकर Strategies बनाने की जरूरत है - जैसे लीची ओर शहद के उत्पादन में बिहार देश में प्रथम है तथा इसका पूरे भारतवर्श तथा विदेशो में भी मांग है अतः इसे प्रदेश सरकार को अपने हाथ में लेकर बाहर बेचने का प्रंबध करना चाहिए। बिहार जूट उत्पादन में भी दूसरे स्थान पर है। दिल्ली तथा अन्य शहरों में No plastic campaign के  कारण जूट तथा जूट से बने सामानों की मांगे बढ़ सकती है। इसके लिए बिहार सरकार को खुद पहल करनी चाहिए जिससे किसानों की हालत सुधरें तथा बिहार में भी खेती एक फायदेमंद उद्योग बन सके।  कृषि तथा कृषको की स्थिति में सुधार का मतलब है - खेतीहर मजूदरों, दलितों, गरीबों तथा समाज के निचले पायदान पर स्थित व्यक्तियों की स्थिति में सुधार । इसका मतलब होता है - गाँवों की स्थिति में सुधार और गाँवों की स्थिति में सुधार का मतलब ही है - प्रदेश का सुधार। अतः राज्य में विकास को गहराई मिलेगी -  कृषि  तथा कृषको की स्थिति में सुधार से ही । इसके बिना किया गया विकास टिकाऊ नही होता। वैसा विकास रेत पर खड़े महल की तरह ही है जो हवा के हल्के झौंके मात्र से ही भरभरा कर बैठ जाता है।

क्रमशः बाकी अगले पोस्ट में ...


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