जय सोमनाथ


नविन कुमार  झा 

ज्यों  ही अपने मित्रों के साथ प्रभाश क्षेत्र के सोमनाथ जी का डमरू एंवम त्रिशूल  अकिंत लहराते हुए विशाल वृशभ् ध्वज का दूर से ही दर्शन  हुआ मन में शिव  स्फुरणा होने  लगी। थोड़ी देर के लिए सम्पूर्ण शरीर रोमांचित हो गया। सब कुछ अस्त-व्यस्त-सा होने लगा परन्तु तुरन्त ही विचार की एक-एक परतें मानस चक्षु के समक्ष प्रकट होने लगी। देखा ! सारी  सृष्टी  शिव से ओत-प्रोत है। शिव जल है, पृथ्वी है, अनिल है तो अनल भी ।  यह क्षितिज भी है तो आकाश  भी । शिव चन्द्र है तो सूर्य भी। शिव अगर अणोरणीयाण में व्याप्त है तो महोर्महीयाण भी इसके भीतर ही है। शिव सभी तत्वों के साथ-साथ सभी भावों में भी विद्यमान है। हास्य में हैं तो रूदन में भी। क्षुधा में है तो तृप्ति में भी। ज्ञान में हैं तो अज्ञान में भी । विद्या तथा अविद्या में भी। शिव नटराज भी हैं। उनके थिरकन में नाश  के साथ निर्माण भी है। योग एवम् भोग का सुंदर संतुलन है। उनकी एक आंख से विध्वंस की लपटें निकलती हैं जो प्रायः बंद रहती है तो दो आँखें निंरतर मुदित रहती हैं , उत्सुक रहती हैं, करूणार्द्र रहती हैं । वे विश्वव्यापी  भी हैं। विशधर, महाव्याली को अपने शरीर में सदा सर्वदा लपेटे रहते हैं । सिद्ध योगीश्वर  हैं। सारी सृष्टी  में उस अव्यक्त शिव की लीलायें व्याप्त है। सर्वत्र उसी अनादि तत्व की ध्वनि व्याप्त है और उस ध्वनि का कंपन्न ही अनादि नाद है, प्रणव है। यही कपंन कभी शब्दों से मुखर हो जाती है तो हवा को गति प्रदान करती है, प्रकाश  को प्रखरता देती है। जैसे भी हो, सृष्टी  का सौभाग्य है कि उसे शिव की करूणा अकारण प्राप्त होती रही है। उनकी यही करूणा, सहज उल्लास की मंगल-भंगिमा ही शिव के स्वरूप में उभर आती है । यही उल्लास - नृत्य ही विश्व की सृष्टी   करता है एवम उसका स्तम्भन ही लय। विश्व  शब्द ही उलटकर शिव  होता है और शिव  को उलटने से ही विश्व  का निर्माण होता है। अतः विश्व   रचना के सारे अवयवों-सृष्टी , विलास तथा लय में शिव-ही-शिव है। यह समस्त भूतग्राम अनन्त काल से उत्पन्न हो-होकर पुनः-पुनः लयावस्था को प्राप्त होता है। कारण से उत्पत्ति, उसका पालन तथा उसी में सबका संहार होता है। निःस्तब्ध समुद्र से तरड्.ग की उत्पत्ति, उसी में उसका पालन तथा अंत में फिर उसी में संहार होता है। पहले तथा बाद में दोनों में ही शान्त  समुद्र कारणावस्था रहती है। इस तरह प्रथम भी शिव  है और अतं में शिव तत्व ही अवशिष्ट   रहता है -


‘ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावषिश्यते’।।


तत्त्वज्ञ लोग उसी में आत्मभाव करते हैं। जो चराचर प्रपंच  की उत्पत्ति के पहले भी होता है और बाद में भी। हमारे ऋशि  उन्हें देखने का खुलेआम उद्घोश भी करते हैं - वहाँ, जहाँ पर आंतरिक सत्य बाह्य यथार्थ से आवृत्त रहता है, जहाँ सूर्य की गति-शक्ति  स्तम्भित हो जाती है और जहाँ अनन्त किरणों का कोलाहल भी एकान्त शुन्यता  के शांत  बिंदू में सिमट जाता है -

‘ऋतेन ऋतमपिहिंत ध्रुवं वां सूर्यस्ययत्र विमंच्यन्त्यष्वान्।।
दश  शता सह तस्युतदेंक देवानां श्रेश्ठं वपुशामपष्यम्’।। (ऋग्वेद 5.62.1)

ऐसे देवता का दर्शन ! जिसे देखने में दृष्टि  की संभावना शेष हो जाय, सोचने में भाव भी विलीन होकर शून्य हो जाय। ये शून्य तथा अनन्त हैं तो अनिशचयवाची राशियाँ ही। परन्तु शून्य अनन्त होता है- अभाव का और अनन्त होता है -समश्टिभाव का शून्य। शून्य अभाव का अतीत है तो अनन्त भाव का भविष्य। इसी शुन्यता एंव अनन्त के सगंम-बिन्दू पर शिवत्व का कमल खिलता है। परन्तु इस शिवत्व का दर्शन  कैसे हो, बिना उनकी कृपा के ? यह बिल्कुल असंभव है। इसी विचार श्रृखंला में मुग्ध हुआ सा बढ़ता जा रहा था - तभी किसी भक्त के कंठ से मधुर श्लोक  मेरे कानों में अमृत घोलने लगी -

सौराश्ट्र देशे विशदे अ तिरम्ये
ज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम्।
भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं
तं सोमनाथ  शरणं प्रपद्ये।।



जो अपनी भक्ति प्रदान करने के लिये अत्यतं रमणीय तथा निर्मल सौराश्ट्र देश  (कठियावाढ़) में कृपापूर्वक अवतीर्ण हुए हैं, चन्द्रमा जिसके मस्तक का आभूशण है, उन ज्योतिर्लिड्ग़स्वरूप भगवान् श्री सोमनाथ की शरण में जाता हूँ।

द्वादश  ज्योतिर्लिंगों में से प्रथम ज्योतिर्लिंग श्री सोमनाथ जी पाप-ताप से पीड़ित इस संसार को सौम्यता अर्थात शितलता प्रदान करने के लिए प्रभास क्षेत्र में विराजमान है । यह प्रभास तीर्थ 20-15 अक्षांष और 70-28 देषांतर रेखा पर स्थित है। वेरावल रेलवे स्टेशन से सोमनाथ की दूरी लगभग 8 कि0मी0 है और बसें बराबर चलती रहती हैं। द्वारका से भी बसों द्वारा सीधे सोमनाथ पहँचा जा सकता है। स्कंदपुराण 7/अ0 3 में प्रभास तीर्थ की स्थिति को इस तरह वर्णित किया है -

पूर्वे तप्तोदक स्वामी पष्चिमे माधवः स्मृतः
दक्षिणे सागरस्तद्वद्भद्रा नद्युत्तरे मता। एंव
सीमासमायुक्तं क्षेत्रं द्वादषयोजनम्।
एतत्प्राभासिकं क्षेत्रं सर्वपातक नाषनम।

जिसके पूर्व भाग में सूर्यनाराण, पष्चिम में माधव, दक्षिण में समुद्र, उत्तर में अम्बिका हैं ऐसा द्वादषयोजन सीमापर्यंत प्रभास क्षेत्र सम्पूर्ण पाप-ताप उपषामक है। यों तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड़ ही शिवमय है परन्तु प्रभास क्षेत्र शेवि  गर्भगृह है जो शिव  को कैलाश  से भी अधिक प्रिय है जिसे शिव  कभी नहीं छोड़ता। सम्पूर्ण वेद तथा महर्शिगणों द्वारा वंदित तथा जिनके द्वारा  परब्रह्म के स्वरूप की प्राप्ति होती है, वही प्रणस्वरूप सोमनाथ महादेव प्रभासतीर्थ में विराजमान हैं। सोमेश्वर  लिंग के यथार्थ स्वरूप को कोई नहीं जानता। पूर्वकाल में यह शिवलिंग  सप्त पाताल भेदन करने वाला था तथा कोटि-कोटि सूर्यो के समान तेजस्वी था। इसीलिये पूर्वकाल में सोमनाथ को ‘‘कालाग्नि रूद्र’’ कहा जाता था। प्रलय के बाद जब महाकल्प प्रारम्भ होता है तब इस दिव्य लिंग का नाम बदल जाता है। उनके पूर्वनाम क्रमषः मृत्युंजय, कालाग्निरूद्र, अमृतेष, अनामय, कृतिवास एवम् भैरवनाथ थें अगले कल्प में सोमनाथ का नाम प्राणनाथ होगा ऐसा शास्त्रों में वर्णन है।


वामन, कूर्म, गरूड़, भविश्य, मत्स्य, पद्य, विश्णु, षिव, श्रीमद्भागवत तथा देवी भागवत में प्रमासतीर्थ एवं सोमनाथ जी की महती महिमा वर्णित हुई है। स्कंदपुराण में तो पूरा का पूरा एक खंड में प्रभाशखंड का वर्णन अति मनोहारी रूप में हुआ है -

सुरासुराराधित, सर्वलोकवंदित, सर्वव्यापक, मृत्युंजय, सनातन, अज, अनादि, अनन्त महाभूत, महाकाम, देवाधिदेव महादेव के सोमनाथ बनने की कथा के अनुसार दक्ष प्रजापति ने अपनी 27 कन्याओं का विवाह सोम अर्थात् चंद्रमा के साथ कर दिया। परंन्तु चंद्रमा का अनुराग केवल रोहिणी के साथ ही रहा। अन्य 26 पत्नियों की उन्होंने उपेक्षा कर दी। अतः इन्होंने अपने पिता श्री दक्ष प्रजापति से इसकी शिकायत की तो पुत्रियों के वेदना से पीड़ित दक्ष ने अपने दामाद को दो बार समझाने का प्रयास किया परन्तु विफल हो जाने पर उन्होने चंद्रमा को ‘क्षयी’ होने का शाप  दे दिया जिससे चंद्रमा क्षय रोग से ग्रसित हो गया। देवता लोग चंद्रमा की व्यथा से व्यथित होकर ब्रह्मा जी के पास गये। ब्रह्माजी ने प्रभासक्षेत्र में महामृत्युंजय मंत्र के साथ वृशभध्वज भगवान् शिव  की उपासना करने के लिए कहा। चंद्रमा के छः महीने तक भगवान की आराधना करने पर वे प्रकट हुए तथा चंद्रमा को एक पक्ष में प्रतिदिन उसकी एक-एक कला  नष्ट  होने तथा दूसरे पक्ष में प्रतिदिन बढ़ने का वर प्रदान किया। तदनन्तर चंद्रमा ने भगवान शिव  की भक्तिभाव से स्तुति की जिससे निराकार शिव फिर साकार हो गये। देवताओं पर प्रसन्न हो उस क्षेत्र के माहात्म्य को बढ़ाने तथा चंद्रमा के यश का विस्तार करने के लिए भगवान शंकर उन्हीं के नाम पर सोमेश्वर  कहलाये तथा सोमनाथ के नाम से तीनों लोंको मे विख्यात हुए। देवताओं ने सोमकुण्ड की स्थापना की जिसमें लगातार छः मास तक स्नान करने मात्र से क्षय आदि असाध्य रोगों का नाश  हो जाता हैं । यहीं पर सोम शाप  के प्रभाव से मुक्त हुए तथा उनकी प्रभा फिर से लौट आयी अतः यह क्षेत्र प्रभास तथा शिव  सोमनाथ कहलाए। यों तो सोमेश्वर  ज्योतिर्लिंग का दर्शन प्रतिदिन करना चाहिए परंतु विशेष  पुण्य तिथि में कार्तिक-पूर्णिमा, फाल्गुन पूर्णिमा, चैत्र पूर्णिमा तथा आशाढ़ पूर्णिमा की गणना होती है । सोमग्रहण के दिन तो दर्शन की विशिष्टता    और बढ जाती है। ऐसा कहा गया है - ‘‘सरस्वती, समुद्रष्च, सोमः सोमग्रहस्तथा। दर्षनं सोमनाथस्य सकाराः पंच दुल्र्लभाः’’

चन्द्रमा ने विष्वकर्मा द्वारा गोक्षीरधवल शुद्ध  स्फटिक शिला का अति उत्तंग स्वर्णमेरू शिखर  सम्पन्न श्री सोमनाथ जी का विशाल  मन्दिर और सभामड़प का निर्माण कराया। श्रीमद् आद्य-जगतगुरू शंकरचार्य वैदिक शोध  संस्थान के आद्य स्थापक एंव अध्यक्ष परिव्राजक स्वामी श्री ज्ञानानंद सरस्वती जी महाराज के अनुसार प्रथम शिवलिंग श्री सोमनाथ जी की प्राण-प्रतिश्ठा एवं मंदिर निर्माण तिथि  श्रा0 षुक्ल तृतीया, सोमवार को 7,99,25,105 (सात करोड़, निन्यानवे लाख पच्चीस हजार एक सौ पाँच ) वर्ष  पहले हुआ था। (यह गणना विक्रमी संवत 2060 में की गई है) बाद में रावण ने चांदी का तथा कृश्ण भगवान ने चंदन का श्री सोमनाथ जी के मंदिर का निर्माण कराया।

सोमनाथ मंदिर की अकूत वैभव संपदा एक मुख्य कारण है, इसे कई बार लूटने में।  722 ई0 में सिंध के सूबेदार जूनामद ने प्रथम आक्रमण करके लूटा था। 1026 ई0 में महमूद गजनी ने श्री सोमनाथ जी की भव्यमूर्ति को तोड़कर 18 करोड़ का खजाना लूटा था। 1297 ई0 में अल्लाउद्दिन खिलजी ने अपने सरदार अलतफखान को भेजकर मंदिर तोड़वाया, 1479 ई0 मे महमूद बेगड़ा, 1503 ई0 में दूसरे मुजफ्फर शाह ने तथा औरंगजेब ने 1701 ई0 में लूटा। लूट एंव निर्माण का कार्यक्रम चलता रहा। इस प्रकार कहा जाता है कि श्री सोमनाथ जी का मंदिर सात बार बना और सातों बार नष्ट  हुआ। यों तो निर्माण एंव नाष का अनवरत चक्र प्रकृति में तो होता रहता है परन्तु द्वादश  ज्योतिर्लिंगों में से केवल सोमनाथ ज्योतिर्लिंग का ही इतनी बार विनाश  रहस्यमयी तो है पर कम रहस्यमयी नहीं है इस मंदिर के इतनी बार निर्माण का। आक्रांताओे ने लूटा है इन्हें बार-बार परंतु ये  षैवी चेतना फिर-फिर और अधिक प्रखरता से प्रकट हुई है सोमनाथ में। ये अखंड षैवी चेतना भारतवर्श के अन्तःस्तल में प्रवाहित होती रही। इतनी बार आक्रांताओं ने लूटा यहाँ के हीरे-जवाहरातों को, यहाँ पर रखी हुई अकूत धन-सम्पदा को परंतु किसी भी तरह षैवी-चेतना को आघात नहीं हुआ। वह सदा ही उद्भासित होता रहा। और इस क्षेत्र ने अपने नाम प्रभाश को सार्थक रखा। तभी तो सरदार पटेल के अथक प्रयास से सोमनाथ अपनी आन-बान-षान के साथ नीले आसमान को चूम रहा है। इसकी गगनचुम्बी लहराती हुई ध्वजा यह उद्घोश करती हुई प्रतीत होती है-गिरना, गिर कर उठना और चलना ही पूर्ण आर्यत्व की निषानी है। यह आर्यत्व सृजनात्मक चेतना है। किसी को पदाक्रांत करना, लूटना, बदला लेना, आर्यत्व नहीं है। आर्यत्व है सभी को साथ लेकर चलने में, गिरते हुए को ऊपर उठाने में और पूर्ण देवत्व को प्राप्त कराने में। आर्य संस्कति विजय नहीं, मैत्री है। यह मूर्तिमान अहिंसा है। शास्त्र  विजय का इतिहास तो है यहां का, पर शस्त्र विजय का इतिहास नहीं रहा। तभी तो यह धरती विभिन्न धर्मों का उद्गम स्थल होने के बावजूद सभी को आश्रय देने में समर्थ रहा है। सभी यहाँ फल-फूल रहे हैं। बहुधर्मी, बहुभाशी, बहु संस्कृति वाला है यह देश  । इसलिए भारतवर्श की चेतना ही समन्वयकारी है। अतः राम, कृश्ण, शिव  इस राश्ट्र की चेतना हैं क्योंकि वे समन्वयकारी हैं। वे ही हमारी आस्था के प्रतीक भी है और वे ही हमारे आदर्श  भी हैं। वे लोकनायक भी हैं क्योंकि वे समन्वयकारी हैं।

पर एक प्रश्न  तो हम सभी को आंदोलित करता रहता है कि क्या भगवान शिव  इन आक्रमणों को प्रकट होकर रोक नहीं सकते थे ? कई तरह की व्याख्यायें की जा सकती हैं परन्तु जो शास्त्र सम्मत व्याख्या है भगवान के अवतार को लेकर -

यदा-यदा हि धर्मस्य गलानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सजाम्यहम।।
परित्राणाय साधूनां विनाषाय च दुश्कृताम्। धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

भगवान की उदघोशणा है भक्तों की रक्षा तथा दुष्टों का विनाश करने के लिए ही बार-बार मैं अपने आप का सृजन करता हूँ। अगर हम आक्रमणकारियों की बात करें तो वे किसी भक्त का विनाश  करने के लिए नही आये थे। वे आये थे धन लूटने के लिये । धन को लूटना ही उनका मुख्य उद्देष्य रहा। धन को लूटा, मन्दिर को तोड़ा परन्तु हमारे भीतर स्थित भगवान की सृजनात्मिका शक्ति ने इसे पुनर्जीवित भी तो किया । इस तरह से ‘तदात्मानं सृजाम्यहम्’ की बात तो हो ही गई। भगवान इसी सृजनात्मिका शक्ति के रूप में पुनः उपस्थित हुए। वैसे भी अगर देखा जाय तो भगवान के इस साम्राज्य में न तो कोई हिन्दू है, न मुसलमान, न ईसाई या और कोई भी । सभी तो उनके बंदे हैं । अब सत्य क्या है ? मंदिर को किसी ने क्यों तोड़ा ? भगवान शिव ने क्यों नहीं प्रतीकार किया ? आदि-आदि । इसे भगवान शिव  ही जानें। सत्य तत्व की अवधारणा जितनी सरल है उसकी समीक्षा उतनी ही जटिल है। सत्य पूरी तरह प्रकाषित है, यह व्यक्त है परंतु इसे पकड़ने का, स्पर्ष करने का, बंदी बनाने का, छल-प्रंपच निरर्थक होता है। सत्य तो तारों से खचाखच भरी रातों में, जुगनुओं के संग, झींगुरों की मृंदग, हवाओं की गलबाहीं लेती झूमती हुई लताओं के पास, दूर कहीं घने जगंलों में, हिमालय की एकांत गुफाओं मे, पृथ्वी के अतल गह्वर में, जहाँ  निष्चल प्राणों की आरती जलती है, पावन श्रद्धा के पुष्प समर्पित होते हैं, और होती है सार्वजनीन करूणा की आचमनी, वहाँ व्यक्त रहता ही है। यह तो सहज है  अनायास और अनावृत होता है। यह व्यक्त है परंतु अकथ भी है। अतः हम ज्योंहि कुछ कहना चाहते हैं वह परोक्ष हो जाता है। इसलिए उस तत्व की समीक्षा कठिन हो जाती है। सत्य समाज को जोड़ता है  तोड़ता नहीं । विखंडित नही करता । विखण्डन तथा विघटन न तो सत्य होता है और न कल्याणकारी ही । इसलिए सुदंर भी नही होता ।   सत्य में सुदंरता भी होती है और सुदंरता में सत्य भी । तो शिवत्व कहाँ पर हो ? ये कहीं बाहर तो हो नहीं सकता - सत्य एंव सौंदर्य को छोड़कर। यह तो इन दोनों को जोड़ने वाला सेतु है और यहीं पर खड़ा होकर -शिवत्व में स्थित होकर ही हमारी आत्मा में गुंजन होता है - ‘सत्यम् शिवम्  सुन्दरम्’। अपनी आत्मा में ऐसे शिवत्व को, जो सत्य एंवम सौंन्दर्य को जोड़ने वाला सेतु हो प्रकट करने की साधना को ही शिव  पूजा या शिव  दर्षन कहते हैं। इसी उदात्त भावना के साथ हम कामना करते हैं - हमारे हृदय में भी शिवत्व का स्फुरण हो।

 ।। जय जय सोमनाथ ।।

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