Ten Commandments of Love

1. जन्म से हमारी वृति गलत तरीके से प्रशिक्षित हुई है । हमें लगता है की हम बचपन से ही प्रेम की कला में निपूर्ण हैं और यह वृति हमें स्वाभाविक तौर से जन्म से मिली हुई है । मात्र पैदा होने से कोई प्रेमी नहीं हो जाता है । हाँ प्रेमी होने की एक सम्भावना एक बीज हममें उपस्तिथ है जो प्रशिक्षण और अनुशासन के माध्यम से एक पुष्प वाटिका बन सकती है ।

2. अगर किसी को प्रेम देने से आपको लगे की आपमें कोई कमी हो गई है , तो समझ लेना चाहिए की प्रेम का अनुभव ही नही हुआ है । अगर आप किसी को प्रेम देते हैं और भीतर लगता है की कुछ खाली हुआ है , तो समझ लेना चाहिए की जो आपने दिया है वह कुछ और होगा , प्रेम कदापि नहीं होगा । अगर आपको लगे की आपके प्रेम करने से कुछ प्रेम कम हो रहा है तो आप प्रेम की अनुभूति से कोसों दूर हैं ।

3. प्रेम जितना भी दो , घटेगा नहीं जितना भी मिले बढेगा नहीं । अगर पूरा सागर भी प्रेम का हमारे ऊपर टूट जाए तो भी रत्ती भर बढेगा नहीं और पूरा सागर लुटा दू प्रेम का तो भी रत्ती भर कम नही होगा ।

4. जिस दिन हमें ऐसा अनुभव होता है की मेरे पास ऐसा प्रेम है , जो में दे डालू , तो भी उतना ही बचेगा जितना था, उसी दिन हमारी दूसरों से प्रेम की मांग कमजोर हो जाती है ।

5. आजीवन हम सब दूसरों से प्रेम की भिक्षा मंगाते चले जाते हैं । बचपन में जवानी में और बुढ़ापे में भी हमारी प्रेम की मांग बनी रहती है । क्योंकि हमें गलतफहमी होती है की दूसरों से मिला प्रेम , हमरे अन्दर के प्रेम को बड़ा देगा । लेकिन जो चीज़ मिलने से बढ़ जाए वह कुछ और होगा प्रेम नहीं ।

6. जो बांटने और देने से घट जाता है वह वासना है । उसे भूलकर भी प्रेम नहीं समझना । काम और वासना को नापा जा सकता है केवल प्रेम ही एक ऐसी immeasurable unit है जिसको नापा नहीं जा सकता है , यह अमाप है।

7. प्रेम जितना घनीभूत होगा , जितना गहरा होगा उतना ही पवित्र होता चला जाता है । जिस व्यक्ति के जीवन में जितना अधिक प्रेम होगा , उतना ही उसके जीवन में sexuality कम होती चली जाती है । व्यक्तिविशेष की कामेच्छा की अत्यंत प्रबल और अनियंत्रित वृति दर्शाती है की जीवन में प्रेम का आभाव है ।

8. प्रेम प्रार्थना है । एक सच्चा प्रेमी वही है जो प्रताड़ना, ईर्ष्या , दोषारोपण, माल्कियत की भावना से मुक्त होता है । मैंने तुझे प्रेम किया इतना ही काफी है । बदले में कुछ भी प्रतिकार चाहने वाला कुछ और कर सकता है लेकिन सच्चा प्रेम नहीं कर सकता है ।

9. अधितर प्रेम का अर्थ लोग एक प्रकार के एकाधिकार या माल्कियत से लेते हैं । जिस क्षण तुम प्रेम के नाम पर किसी भी जीवित चीज़ पर अपना अधिकार जमाते हो , तुम उसे मार डालते हो । तब तुम चिंतित होगे , तुमें लगेगा की तुमने तो प्रेम किया लेकिन सामने वाले ने तुमें धोखा दिया । याद रखना यदि तुमें सच्चा प्रेम होगा तो तुम कभी भी असुरक्षित, भयभीत और ईर्ष्यालु नहीं महसूस करोगे ।

10. जो व्यक्ति प्रेम को समझ लेता है वह परमात्मा को समझने की फ़िक्र छोड़ देता है । प्रेम और परमात्मा एक ही डायमेंशन की चीजें हैं । प्रेम चरम नियम है ।

द्वारा : गीता 

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