महापर्व शिवरात्रि

प्रो उर्मिला पोरवाल सेठिया 
बैंगलोर

महाशिवरात्रि हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। यह भगवान शिव का प्रमुख पर्व है।शिव जिनसे योग परंपरा की शुरुआत मानी जाती है को आदि (प्रथम) गुरु माना जाता है। परंपरा के अनुसार, इस रात को ग्रहों की स्थिति ऐसी होती है जिससे मानव प्रणाली में ऊर्जा की एक शक्तिशाली प्राकृतिक लहर बहती है। इसे भौतिक और आध्यात्मिक रूप से लाभकारी माना जाता है इसलिए इस रात जागरण की सलाह भी दी गयी है जिसमें शास्त्रीय संगीत और नृत्य के विभिन्न रूप में प्रशिक्षित विभिन्न क्षेत्रों से कलाकारों पूरी रात प्रदर्शन करते हैं। शिवरात्रि को महिलाओं के लिए विशेष रूप से शुभ माना जाता है। विवाहित महिलाएँ अपने पति के सुखी जीवन के लिए प्रार्थना करती हैं व अविवाहित महिलाओं भगवान शिव, जिन्हें आदर्श पति के रूप में माना जाता है जैसे पति के लिए प्रार्थना करती हैं। परंपरा अनुसार सभी त्योहार को मनाते अवश्य है परंतु उससे जुड़े प्रश्नों उत्तर भी खोजते रहते हैं उन्ही में से कुछ प्रश्नों के उत्तर आलेख के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।

सर्वप्रथम मन में प्रश्न उठता है कि शिवरात्रि से क्या आशय है-शिवरात्रि वह रात्रि है जिसका शिवतत्त्व से घनिष्ठ संबंध है। भगवान शिव की अतिप्रिय रात्रि को शिव रात्रि कहा जाता है। शिव पुराण के ईशान संहिता में बताया गया है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में आदिदेव भगवान शिव करोडों सूर्यों के समान प्रभाव वाले लिंग रूप में प्रकट हुए थे-

फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि।
शिवलिंगतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ:॥

इसलिए फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा जाता है। कई स्थानों पर यह भी माना जाता है कि शिवरात्रि भगवान शिव और उनकी पत्नी पार्वती की पूजा का पावन दिन जिसमें उनके विवाह का उत्सव मनाया जाता हैं । इसी दिन भगवान शिव का विवाह हुआ था | तीनों भुवनों की अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरां को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव, प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीब है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं और श्री-संपत्ति प्रदान करते हैं। साल में होने वाली 12 शिवरात्रियों ने से महाशिवरात्रि की सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।

फिर प्रश्न उठता है कि शिवरात्रि या शिवचौदस नाम ही क्यों?
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की महादशा यानी आधी रात के वक़्त भगवान शिव लिंग रूप में प्रकट हुए थे, ऐसा ईशान संहिता में कहा गया है। इसीलिए सामान्य जनों के द्वारा पूजनीय रूप में भगवान शिव के प्राकट्य समय यानी आधी रात में जब चौदस हो उसी दिन यह व्रत किया जाता है। इसलिए इस आधार पर यह नाम रखा गया।

यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक है कि शिवलिंग क्या है?
वातावरण सहित घूमती धरती या सारे अनंत ब्रह्माण्ड का अक्स ही लिंग है। इसीलिए इसका आदि और अन्त भी देवताओं के लिए भी अज्ञात है, साधारण जनों की क्या बिसात। सौरमण्डल के ग्रहों के घूमने की कक्षा ही शिव तन पर लिपटे सांप हैं।

मुण्डकोपनिषद के कथानुसार सूर्य, चांद और अग्नि ही आपके तीन नेत्र हैं। बादलों के झुरमुट जटाएं, आकाश जल ही सिर पर स्थित गंगा और सारा ब्रह्माण्ड ही आपका शरीर है। शिव कभी गर्मी के आसमान (शून्य) की तरह कर्पूर गौर या चांदी की तरह दमकते, कभी सर्दी के आसमान की तरह मटमैले होने से राख भभूत लिपटे तन वाले हैं। यानी शिव सीधे-सीधे ब्रह्माण्ड या अनन्त प्रकृति की ही साक्षात मूर्ति हैं।

मानवीकरण में वायु प्राण, दस दिशाएँ, पंचमुख महादेव के दस कान, हृदय सारा विश्व, सूर्य नाभि या केन्द्र और अमृत यानी जलयुक्त कमण्डलु हाथ में रहता है।

लिंग शब्द का अर्थ चिह्न, निशानी या प्रतीक है। शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है। स्कन्द पुराण में कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है । धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनन्त शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा गया है।

शिवलिंग क्या है यह जानने के पश्चात यह भी जानना आवश्यक है कि शिवलिंग मंदिरों में बाहर क्यों होता है?
जनसाधारण के देवता होने से, सबके लिए सदा गम्य या पहुँच में रहे, ऐसा मानकर ही यह स्थान तय किया गया है। ये अकेले देव हैं जो गर्भगृह में भक्तों को दूर से ही दर्शन देते हैं। इन्हें तो बच्चे-बूढे-जवान जो भी जाए छूकर, गले मिलकर या फिर पैरों में पड़कर अपना दुखड़ा सुना हल्के हो सकते हैं। भोग लगाने अर्पण करने के लिए कुछ न हो तो पत्ता-फूल, या अंजलि भर जल चढ़ाकर भी खुश किया जा सकता है।

शिव-पूजा के रूप में हम शिव-लिंग की पूजा करते क्यों हैं। इसका क्या रहस्य है यह जानना भी विषय की आवश्यकता है शिव पुराण, लिंग पुराण एवं स्कंद पुराण में लिंगोत्पत्ति का विस्तार से वर्णन है- स्कंद पुराण में कथा है-वर्तमान श्वेत वाराहकल्प से जब देवताओं की सृष्टि समाप्त हो गई। युग के अंत में स्थावर जंगम सब सूख गए। पशु-पक्षी, मनुष्य, राक्षस, गंधर्व सब सूर्य के ताप से जल गए। सारी सृष्टि जल मग्न हो गई। सब दिशाओं में अंधेरा छा गया। ऐसे समय में ब्रह्माजी ने भगवान विराट को नारायण रूप से क्षीर सागर में शयन करते देखा। ब्रह्माजी ने नारायण को जगाया। भगवान नारायण ने ब्रह्माजी को बेटा कह कर पुकारा। ब्रह्माजी ने क्रोधित होकर पूछा-तुम हौन हो! मुझे बेटा कहने वाले ? में तो पितामह हूँ। भगवान विष्णु ने समझाया कि हमीं सृष्टि के कर्ताधर्ता हैं तुम्हें तो मेंने ही सृष्ट किया है। इस पर दोनों में वर्षों-वर्षों तक विवाद होता रहा, युद्ध होता रहा। इसी समय उनके सामने प्रचण्ड अग्नि का एक महा स्तंभ प्रकट हुआ जो ऊपर-नीचे अनादि और अनन्त था। दोनों ने इसे ही झगड़े का निर्णायक समझा। दोनों ने निर्णय किया-ब्रह्मा स्तंभ के ऊपरी हिस्से का पता लगाएं तथा विष्णु नीचे के भाग का। ब्रह्मा ने हंस का रूप धारण किया तथा विष्णु ने बाराह का रूप धारण किया। दोनों ने हजार वर्ष तक उस ज्योति-स्तंभ का अंत पा लेने की चेष्टा की, पर पार नहीं पा सके। अन्त में हार कर उस ज्योतिर्लिंग की दोनों ने प्रार्थना की, पूजा की। भगवान शिव प्रकट हुए तथा उन्होंने स्पष्ट किया कि ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र तीनों की उत्पत्ति महेश्वर के अंश से ही होती है। तीनों अभेद हैं, तीनों समान हैं। इसीलिए शिव-पूजा के रूप में हम शिव-लिंग की पूजा करते हैं।

यह जानना भी बहुत आवश्यक है कि शिवलिंग पर जल क्यों चढ़ता है?
रचना या निर्माण का पहला पग बोना, सींचना या उडेलना हैं। बीज बोने के लिए गर्मी का ताप और जल की नमी की एक साथ जरुरत होती है। अत: आदिदेव शिव पर जीवन की आदिमूर्ति या पहली रचना, जल चढ़ाना ही नहीं लगातार अभिषेक करना अधिक महत्त्वपूर्ण होता जाता है। सृष्टि स्थिति संहार लगातार, बार–बार होते ही रहना प्रकृति का नियम है। अभिषेक का बहता जल चलती, जीती-जागती दुनिया का प्रतीक है।

जल चढ़ाने के गूढ़ अर्थ को समझने के पश्चात यह भी जानना आवश्यक है कि बेल (बिल्व) पत्र का क्या महत्त्व होता है।
बेल (बिल्व) के पत्ते श्रीशिव को अत्यंत प्रिय हैं। शिव पुराण में एक शिकारी की कथा है। एक बार उसे जंगल में देर हो गयी, तब उसने एक बेल वृक्ष पर रात बिताने का निश्चय किया। जगे रहने के लिए उसने एक तरकीब सोची- वह सारी रात एक-एक कर पत्ता तोडकर नीचे फेंकता जाएगा। कथानुसार, बेलवृक्ष के ठीक नीचे एक शिवलिंग था। शिवलिंग पर प्रिय पत्तों का अर्पण होते देख, शिव प्रसन्न हो उठे। जबकि शिकारी को अपने शुभ कृत्य का आभास ही नहीं था। शिव ने उसे उसकी इच्छापूर्ति का आशीर्वाद दिया। यह कथा न केवल यह बताती है कि शिव को कितनी आसानी से प्रसन्न किया जा सकता है, बल्कि यह भी कि इस दिन शिव पूजन में बेल पत्र का कितना महत्त्व है।बेल के तीन पत्र हमारे लोभ, मोह, अहंकार के प्रतीक हैं, जिन्हें विसर्जित कर देना ही श्रेयस्कर है।

भारत में शिवरात्रि अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग प्रकार से मनाई जाती है जिसके बारे में उल्लेख करना भी प्रासंगिक लगता है।
मध्य भारत में शिव अनुयायियों की एक बड़ी संख्या है। महाकालेश्वर मंदिर, (उज्जैन) सबसे सम्माननीय भगवान शिव का मंदिर है जहाँ हर वर्ष शिव भक्तों की एक बड़ी मण्डली महा शिवरात्रि के दिन पूजा-अर्चना के लिए आती है। जेओनरा,सिवनी के मठ मंदिर में व जबलपुर के तिलवाड़ा घाट नामक दो अन्य स्थानों पर यह त्योहार बहुत धार्मिक उत्साह के साथ मनाया जाता है ।

कश्मीर में कश्मीरी ब्राह्मणों के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। यह शिव और पार्वती के विवाह के रूप में हर घर में मनाया जाता है। महाशिवरात्रि के उत्सव के 3-4 दिन पहले यह शुरू हो जाता है और उसके दो दिन बाद तक जारी रहता है।

दक्षिण भारत में महाशिवरात्रि आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना के सभी मंदिरों में व्यापक रूप से मनाई जाती है।
बांग्लादेश में हिंदू महाशिवरात्रि मनाते हैं। वे भगवान शिव के दिव्य आशीर्वाद प्राप्त करने की उम्मीद में व्रत रखते हैं। कई बांग्लादेशी हिंदू इस खास दिन चंद्रनाथ धाम (चिटगांव) जाते हैं। बांग्लादेशी हिंदुओं की मान्यता है कि इस दिन व्रत व पूजा करने वाले स्त्री/पुरुष को अच्छा/अच्छी पति या पत्नी मिलती है। इस वजह से ये पर्व यहाँ खासा प्रसिद्ध है।

नेपाल में शिवरात्रि विशेष रूप से पशुपति नाथ मंदिरों में व्यापक रूप से मनायी जाती है। महाशिवरात्रि के अवसर पर काठमांडू के पशुपतिनाथ के मन्दिर पर भक्तजनों की भीड़ लगती है। इस अवसर पर भारत समेत विश्व के विभिन्न स्थाननों से जोगी, एवम्‌ भक्तजन इस मन्दिर में आते हैं।

इस प्रकार पारंपरिक विभिन्नता होते हुए भी महाशिवरात्रि सभी प्रांतों में समान महत्व रखती है।इसलिए कहा गया है-

‘अहं शिवः शिवश्चार्य, त्वं चापि शिव एव हि।
सर्व शिवमयं ब्रह्म, शिवात्परं न किञचन।।

अर्थात मैं शिव, तू शिव सब कुछ शिव मय है। शिव से परे कुछ भी नहीं है। जो सृष्टि में है वही पिण्ड में है। इसीलिए कहा गया है- ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।’
गहनता पूर्वक विचार करे तो शिव का अर्थ ही होता है श्शुभ।श् और शंकर का अर्थ होता है, कल्याण करने वाले। इस आधार पर जीवन का मूल उद्देश्य है-शिवत्व की प्राप्ति। उपनिषद् का आदेश है -

श्शिवो भूत्वा शिवं यजेतश्

अर्थात शिव बनकर ही शिव की पूजा करें। निश्चित रूप से उन्हें प्रसन्न करने के लिए मनुष्य को शिव के अनुरूप ही बनना पड़ेगा।
अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि-हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें ? इसी का उत्तर है यह ‘ऊँ नमः शिवाय’ का मंत्र। ‘ऊँ नमः शिवाय’ यह एक मंत्र ही नहीं महामंत्र है। यह महामंत्र इसलिए है क्यूंकि यह आत्मा का जागरण करता है। हमारी आध्यात्मिक यात्रा इससे सम्पन्न होती है। यह किसी कामना पूर्ति का मंत्र नहीं है। यह वह मंत्र है जो कामना को समाप्त कर सकता है, इच्छा को मिटा सकता है। एक मंत्र होता है कामना की पूर्ति करने वाला और एक मंत्र होता है कामना को मिटाने वाला। दोनों में बहुत बड़ा अन्तर होता है। कामना पूर्ति और इच्छा पूर्ति का स्तर बहुत नीचे रह जाता है। जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि वही है, जिससे कामना और इच्छा का अभाव हो सके।

उदाहरण स्वरूप विषय से संबंधित एक कहानी याद आती है- एक अत्यन्त गरीब के पास एक साधु आया। वह व्यक्ति गरीब तो था पर था संतोषी एवं भगवान का अटूट विश्वास रखने वाला। उसकी गरीबी को देखकर साधु ने करुणार्द्र होकर उसे मांगने के (कुछ भी) लिए कहा, लेकिन गरीब व्यक्ति ने कुछ भी नहीं मांगा। तो साधु बोला कि मैं किसी को देने की सोच लेता हूं उसे पूरा करना मेरा कर्तव्य समझता हूं। अतः मैं तुझे पारस दे देता हूं जिससे तुम अपनी गरीबी को दूर कर सकोगे। तब उस गरीब व्यक्ति ने निवेदन किया, ‘हे महाराज। मुझे इन सांसारिक सुखों की चाहना नहीं है। मुझे तो वह चाहिए जिसे पाकर आपने पारस को ठुकराया है जो पारस से भी ज्यादा कीमती है वह मुझे दो।’

स्पष्ट है जब व्यक्ति के अन्तर की चेतना जाग जाती है तब वह कामना पूर्ति के पीछे नहीं दौड़ता, बल्कि उस मंत्र की खोज करता है जो कामना को काट दे।‘ ऊँ नमः शिवाय’ इसीलिए महामंत्र है कि इससे इच्छा की पूर्ति नहीं होती अपितु इच्छा का स्रोत ही सूख जाता है। जहां सारी इच्छाएं समाप्त, सारी कामनाएं समाप्त, वहां व्यक्ति निष्काम हो जाता है। पूर्ण निष्काम भाव ही मनुष्य का प्रभु स्वरूप है। इस मंत्र से ऐहिक कामनाएं भी पूरी होती हैं किन्तु यह इसका मूल उद्देश्य नहीं है। इसकी संरचना आध्यात्म जागरण के लिए हुई है, कामनाओं की समाप्ति के लिए हुई है।

यह मंत्र महामंत्र इसलिए ही है कि इसके साथ कोई मांग जुड़ी हुई नहीं है। इसके साथ केवल जुड़ा है - आत्मा का जागरण, चैतन्य का जागरण, आत्मा के स्वरूप का उद्घाटन और आत्मा के आवरणों का विलय। जिस व्यक्ति को परमात्मा उपलब्ध हो गया, जिस व्यक्ति को आत्म जागरण उपलब्ध हो गया, समझो उसे सब कुछ उपलब्ध हो गया, कुछ भी शेष नहीं रहा। जहां इतनी बड़ी स्थिति होती है वहां सचमुच यह मंत्र महामंत्र बन जाता है।‘

‘‘ओम्’ शब्द पूर्ण शब्द है। ओम् में अ, उ, म तीन अक्षर हैं। इन तीन ध्वनियों के मेल से ‘ओम’ बनता है। इसका प्रथम अक्षर ‘अ’ सभी शब्दों का मूल है, चाहे शब्द किसी भी भाषा का हो। ‘अ’ जिव्हा मूल अर्थात् कण्ठ से उत्पन्न होता है। ‘म’ ओठों की अन्तिम ध्वनि है। ‘उ’ कण्ठ से प्रारम्भ होकर मुंह भर में लुढ़कता हुआ ओठों में प्रकट होता है। इस प्रकार ओम् शब्द के द्वारा शब्दोच्चारण की सम्पूर्ण क्रिया प्रकट हो जाती है। अतः हम कह सकते हैं कि कण्ठ से लेकर ओंठ तक जितनी भी प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हो सकती है, ओम में उन सभी ध्वनियों का समावेश है। फिर इन्ही ध्वनियों के मेल से शब्द बनते हैं। अतः ओम् शब्दों की समष्टि है।

अब महामंत्र के प्रथम भाग ‘ऊँ’ की उच्चारण के पश्चात् यह देखना है कि इस महामंत्र में ‘नमः शिवाय’ शब्दों का समावेश करने का क्या प्रयोजन है। नमः शब्द नमस्कार का ही छोटा रूप है। यह महामंत्र नमस्कार मंत्र भी है। प्रणव की अवधारणा में कि ‘मैं ब्रह्म हूं’ की साधना करते-करते साधक कहीं अहंकार का शिकार न हो जाए, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ‘नमः शिवाय’ शब्दों के माध्यम से विनम्र समर्पण है। अहंकार एवं ममकार जब तक विलीन नहीं होते तब तक हमारी सीमा समाप्त नहीं हो सकती। सान्तता समाप्त हुए बिना अनन्तता की अनुभूति नहीं होती। अनन्त की अनुभूति के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है - अहंकार का और ममकार का विलय।

‘नमः शिवाय’ नमन है, समर्पण है-अपने पूरे व्यक्तित्व का समर्पण। इससे अहंकार विलीन हो जाता है। जहां नमन होता है वहां अहंकार टिक नहीं सकता। अहंकार निःशेष और सर्वथा समाप्त। शिव के प्रति नमन्, शिव के प्रति हमारा समर्पण, एकीभाव जैसे-जैसे बढ़ता है, भय की बात समाप्त होती चली जाती है। भय तब होता है जब हमें कोई आधार प्राप्त नहीं होता। आधार प्राप्त होने पर भय समाप्त हो जाता है। साधना के मार्ग में जब साधक अकेला होता है, तब न जाने उसमें कितने भय पैदा हो जाते हैं किन्तु जब ‘नमः शिवाय’ जैसे शक्तिशाली मंत्र का आधार लेकर चलता है तब उसके भय समाप्त हो जाते हैं। वह अनुभव करता है कि मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथ शिव है।

एक वृतांत है-साधक के पास एक व्यक्ति ने कहा, ‘आप अकेले हैं, मैं कुछ देर आपका साथ देने के लिए आया हूँ। साधक ने कहा, ‘मैं अकेला कहां था ? तुम आए और मैं अकेला हो गया। मैं मेरे प्रभु के साथ था।’

इस प्रकार ‘नमः शिवाय’ शिव के प्रति नमन, शिव के प्रति समर्पण, शिव के साथ तादात्म्य है। यह अनुभूति अभय पैदा करती है।

एक बार रमण महर्षि से पूछा गया - ‘ज्ञानी कौन? उन्होंने ‘उत्तर दिया जो अभय को प्राप्त हो गया हो।’स्पश्ट है कि ‘नमः शिवाय’ अभय के द्वारा ज्ञान की ज्योति जलाता है। अतः मंत्र सृष्टा ऋषियों ने ‘ऊँ’ के साथ नमः शिवाय संयुक्त कर ‘ऊँ’ रूपी ब्रह्म को ‘शिव’ रूपी जगत के साथ मिलाया है।

निष्कर्षत:अध्यात्म की शैव-धारा में ‘ऊँ नमः शिवाय’ एक महामंत्र है। इस महामंत्र की सिद्धि जीवन की सिद्धि है। इस मंत्र की साधना से भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों उपलब्धियां प्राप्त होती है। आवश्यकता है उसे अपना कर अनुभव करने की। गुरु लोगों के मुखारविन्द से, स्वाध्याय एवं स्वानुभूति से जो निष्पत्तियां आई हैं, उन्हीं का निरूपण करने के पश्चात सारांश यही है कि- शिव ही र्स्वस्व हैं। ऐसे शिव को छोड़कर हम किसकी पूजा करें ! इनकी पूजा उनके गुणों के माध्यम से ही की जा सकती है इसलिए बस यही कामना है कि - हम सब इसी शिव में ही रमण करें। इसका ही ध्यान करें और अंत में इसी में ही लय हो जाएं। ऊँ नम: शिवाय ।।।।।

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