श्रीमद्भगवद्गीता का भारतीय दार्शनिक विचारधारा में योगदान


मधुरिता  

भारतवर्ष दर्शनों की भूमि है । अनेक दर्शनों में से छः दर्शन मुख्य हैं। ये दर्शन ब्रह्म के साक्षात्कार करने वालों, साकारवादियों का भी है तो निराकारवादियों का भी । भगवदसत्ता मानने वालों की भी है तो उनकी सत्ता को नकारने वालों की भी । अणोरणीयाण से लेकर महतोर्महीयान-सभी लौकिक वस्तुओं की भी विवेचना का दर्शन है तो इससे परे का भी । भारतीय मनीषा केवल जानने मात्र से ही संतुष्ट होकर बैठता नहीं है बल्कि जानकर तथा मानकर उसे साक्षात्कार भी करता है, दर्शन भी करता है । अतः ये शास्त्र दर्शनशास्त्र कहलाते हैं । हमारा धर्म केवल कर्मकाण्ड, पूजा-पाठ, व्रत-उपवास ही नहीं है बल्कि इसके पीछे एक दर्शन भी है । ये दर्शन इस प्रकार हैं:-

न्याय दर्शन: महर्षि गौतम ने इसे प्रतिपादित किया था । अपने न्याय शास्त्र में उन्होंने भगवद् सत्ता के लिए प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद इत्यादि सूत्रों का प्रयोग किया है।

वैशेषिक दर्शन: महर्षि कणाद ने इसमें पदार्थ विज्ञान तथा अणु सिद्धान्त का विस्तृत वर्णन किया है। इसमें भगवद् सत्ता का समर्थन किया गया है ।

सांख्य दर्शन: महर्षि कपिल ने सांख्य दर्शन का वर्णन भागवत में (3.25-33) किया है । ये दर्शन ज्ञान की महिमा का वर्णन करता है और इसी के द्वारा मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताते हैं।

पूर्व मीमांसा दर्शन: महर्षि जैमिनि के द्वारा प्रतिपादित हुआ है । आत्मा, परमात्मा, वेद, मोक्ष आदि की मीमांसा हुई है । ईष्वर के बारे में नहीं मानते हैं । परंतु इस पर अलग से विचार करने की आवश्यकता  है ।

उत्तर मीमांसा दर्शन: इसमें तीन दर्शन हैं - अद्वैत, विशिष्टाद्वैत तथा द्वैत । अद्वैत के प्रतिपादक आदिशंकर, विशिष्टाद्वैत के रामानुजाचार्य तथा द्वैत के माध्वाचार्य जी हैं ।

योग दर्शन: महर्षि पतंजलि योग दर्शन के जनक है ।

उपर्युक्त सभी दर्शनों के बारे में अलग से मीमांसा हो सकती है । अभी हम अपने प्रतिपाद्य विषय की ओर चलें ।

श्रीमद्भगवद्गीता जो गीता के नाम से प्रचलित है, विश्व के विलक्षण धार्मिक शास्त्रों में से एक है । गीता तो वास्तव में विश्वग्रन्थ ही नहीं, मानवग्रंथ भी है । ये विश्व के सबसे लम्बे महाकाव्य महाभारत के भीष्मपर्व में भगवद्गीता नामक अवान्तर पर्व के 25वें अध्याय से 42वें अध्याय में उल्लिखित है । सर्वप्रथम श्रीआदिशंकर ने श्रीमद्भगवद्गीता को महाभारत से निकालकर एक स्वतंत्र कृति के रूप में प्रकट किया । वेदांत के प्रस्थानत्रय में श्रीमद्भगवद्गीता का अनन्यतम स्थान है - अन्य दो हैं उपनिषद् और ब्रहमसूत्र ।

यद्यपि गीता की पृष्ठभूमि में कुरूक्षेत्र की युद्धभूमि है इसके द्वारा युद्ध से विमुख अर्जुन को युद्ध हेतु प्रेरित किया गया है | इसका युद्ध या लड़ाई या रक्तपात से वास्तविक संबंध के साथ-ही-साथ अपने जीवन के पवित्र कर्तव्यों के पालन से भी है, चाहे वे कितने ही अप्रिय क्यों न हों । भीषणतम् समस्याओं के झंझावातों में भी तनिक विचलित न होकर ‘मेरा स्मरण करो और युद्ध करो’ (8/7) का संदेश कितने ही हताश प्राणी के लिए प्रकाश-स्तम्भ के समान है और अगर युद्ध या संघर्ष से भी इसका वास्तविक संबंध हो भी तो क्या युद्ध हमारे जीवन का अंग नहीं है? युद्ध के विरोध में चाहे कितनी ही सुंदर अवधारणायें क्यों नहीं विकसित हुई हो परंतु है यह हमारे जीवन का अंग ही - इतिहास साक्षी है कि युद्ध के तुरंत बाद अन्याय का अंत हुआ - कई देशों ने जो धूल-धूसरित हो गये थे युद्ध में -उन्नति के शिखर को भी छुआ । प्रथम तथा द्वितीय विश्वयुद्ध भी इसका प्रमाण हैं । यह एक अलग विषय है । यहाँ पर हम युद्ध को संघर्ष के रूप में व्याख्यायित कर अपने आध्यात्मिक एवं सांसारिक जगत् को आलोकित करें-यही मेरी कामना है ।

आइये हम भारतीय दार्शनिक विचारधारा को आगे बढ़ाने में तथा इसे और अधिक लौकिक बनाने में श्रीमदभगवद्गीता के योगदान की विवेचना करें -

गीता का निष्काम कर्मयोग का सिद्धान्त
सतयुग में महान भागवत धर्म था जिसमें सभी प्राणी एक दूसरे में भगवद्दर्षन करते थे । त्रेता में बड़े-बड़े यज्ञों का प्रचलन था । इसके बाद द्वापर में कर्मकांडो का प्रचलन हुआ । त्रेता तथा द्वापर में यज्ञों तथा कर्मकाण्डों द्वारा सांसारिक सुख की प्राप्ति की कामना होती थी । परंतु अत्यधिक खर्चीला, समय, शक्ति तथा ज्ञान की आवश्यकता होती थी । अतः एक दूसरी धारणा का श्रीगणेश हुआ जिसमें उपनिषद् के ऋषियों ने ऐसे तत्त्वों का आविष्कार किया जहाँ सब कर्मों का त्याग हो । केवल जीवन धारण करने योग्य कर्मों को करते हुए अपने अन्दर स्थित आत्मा का चिन्तन करना श्रेयस्कर माना । इससे जीवन के प्रति उदासीनता का भाव आ गया । द्वापर के अंत में तभी भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्मयोग की व्याख्या प्रस्तुत की जिसमें कर्मां के त्याग के बिना ही निःश्रेयस की प्राप्ति हो सकें । इसमें कर्मों के त्याग की जगह कर्मफल से निस्पृह रहने की बात कही गई है । यज्ञ, दान, तप के त्याग की जगह इसे करने की बात कही गई है परंतु स्पृहा रहित होकर करने की आज्ञा दी गई है क्योंकि ये सात्विक कर्म मन को शुद्ध करते हैं (18/5) । इसके साथ ही उन्होंने तप, यज्ञ आदि की परिभाषा को भी विस्तृत करते हुए कहा है कि कोई भी कार्य जो जनकल्याण हेतु होते हैं वे सभी यज्ञ हैं । इसमें स्वाध्याय रूप ज्ञानयज्ञ, भगवद्प्रीत्यर्थंकर्म दैवयज्ञ, इसमें होने वाले कष्ट सहन रूपी तपयज्ञ आदि की विशद व्याख्या चौथे अध्याय में हुई है। ये सभी ज्ञान मार्ग से प्राप्त होने वाले फलों की तरह ही प्रभावी हैं । जनक सदृश ज्ञानी ने कर्म मार्ग द्वारा ही पूर्णता प्राप्त की । भगवान कृष्ण का जीवन तो निष्काम कर्मयोग का साक्षात् विग्रह ही है और उनके कर्म इसकी व्याख्या हैं जिससे हम कर्म कुशलता के द्वारा भगवद्योग को प्राप्त कर ब्रह्मानंद के भागी हो सकते है । श्रीमान् अर्जुन जो जिज्ञासु तो थे परंतु उनका मानसिक गठन ज्ञानयोग तथा भक्तियोग के अनुकूल नही था । अतः भगवान ने उन्हें कर्मयोग में ही प्रतिष्ठित किया । हांलाकि भगवान ने अर्जुन को गीता के अन्य योगों के बारे में भी बताया था परंतु उन्हें कर्मयोगी बनाते हुए कहा-मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो । ‘तस्मात्सर्वेषु कालेषुमामनुस्मर युध्य च।’

योग का समन्वयवादी दृश्टिकोण:
भगवान् ने गीता में अर्जुन को सभी योगों के बारे में बताया है परंतु उन्हें अन्य योगों को छोड़कर कर्मयोग की ओर प्रेरित किया है क्योंकि अर्जुन में कर्मठता कूट-कूट कर भरी थी | यह कर्मठता उनकी प्रकृति के भी अनुकूल थी । हालांकि अन्य गुण भी थे परंतु अन्य गुण यथा, जिज्ञासा, भक्ति आदि की मात्रायें गौण थी फिर भी अर्जुन ने इसका उचित अनुपात में उपयोग किया । भगवान् श्रीकृष्ण ने ‘योग’ शब्द का उपयोग भी कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा राजयोग के लिये किया है । यथा 2.48, 50 तथा 6.2 में योग को कर्मयोग के लिए, परंतु 6.12, 15 में राजयोग के लिए, 5.8 में युक्त शब्द का उपयोग ज्ञानयोगी के लिए और 8.14 में ‘नित्ययुक्त’ शब्द भक्तियोगी के लिए हुआ है वैसे भी गीता का कर्मयोग तो भक्तिमय ज्ञानयोग है , इसी तरह गीता का भक्तियोग भी कर्ममय ज्ञानयोग तथा ज्ञानयोग भक्तिमय कर्मयोग है अर्थात् गीता का योग समन्वयकारी योग है । परंतु ज्ञानयोगी में ज्ञान की, भक्तियोगी में भक्ति की तथा कर्मयोगी में कर्म की प्रधानता तो रहनी चाहिए परंतु अन्य दो की भी अनुभूति होनी चाहिये ।

अवतारवाद का सिद्धान्त
वेदों में यत्र-तत्र अवतार की बातें हुई हैं । पुराणों में भी दशावतार का वर्णन है । जो गीता में आकर पूर्णता को प्राप्त हुआ है । इसी परिप्रेक्ष्य में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये योग मैंने विवस्वान को, मनु को तथा इक्ष्वाकुवंशी राजाओं को दिया था जो कालक्रम में लुप्त हो गया और अब वही योग मैं तुम्हें दे रहा हूँ । अर्जुन ने जब यह जानना चाहा कि ये कैसे हुआ तो उन्होंने जवाब दिया कि हमारे अनेकों जन्म हो चुके हैं । यद्यपि भगवान् अजन्मा हैं फिर भी अपनी मायाशक्ति का आश्रय लेकर निजइच्छा से बार-बार अवतरित होते हैं और धर्म की स्थापना करते हैं । इसी क्रम में भगवान् का दिकदिंगत, सार्वजनिन, सार्वकालिक तथा सर्वव्यापी उद्घोष होता है :

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।

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