महात्मा यमराज और नचिकेता संवाद का रहस्य (कठोपनिषद् के आधार पर)

मधुरिता  

(प्रस्तुत संदर्भ में मानव जीवन के गुह्यतम् रहस्यों के बारे में विवेचना हुई है। अतः सभी से अनुरोध है कि इसका बार-बार मनन, चिंतन एवं स्मरण करें तभी परमात्मा इस रहस्य को प्रकाशित करेंगे। )

महात्मा यमराज एवं महर्षि नचिकेता
मनुष्य शरीर और इन्द्रियां विनाशवान हैं और आत्मा जो परमात्मा का ही अंश है वह अविनाशी, पूर्ण सच्चिदानन्द, इन इन्द्रियों से परे है । इन मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार से भी परे । तो फिर ये साधना, ये शास्त्र पुराण, ये विभिन्न धर्म आदि किस लिये? आखिर परमात्मा को पाने के लिए कौन से मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि की आवश्यकता है और वे चीजें कैसे प्राप्त हो सकती हैं? किस तरह की साधना चाहिए तथा हमें किस तरह की उपलब्धि प्राप्त होती है इससे ? आत्मा, परमात्मा, प्रकृति आदि क्या हैं? जिनके बारे में चार वेद, अठारह पुराण, छः शास्त्र, उपनिषद आदि ग्रन्थ भरे पड़े हैं, सदियों से ऋषि -महर्षि , महात्मा, भक्त आदि आ-आकर किस परमात्मा की, किस आत्मा की बातें बतातें हैं? उन्होंने इसे कैसे पाया? इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है । इस सन्दर्भ में कृष्ण-यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत कठोपनिषद का विवेचन अधिक उपयुक्त होगा जिसमें नचिकेता तथा मृत्यु के देवता यमराज का वार्तालाप है । इन प्रश्नों के उपयुक्त उत्तर या तो महात्मा यमराज या स्वयं भगवान ही दे सकते हैं । साथ ही ब्रह्मज्ञानि ऋषि भी।

इन सब प्रश्नों का उत्तर जानने से पहले हमें जीवात्मा, परमात्मा तथा माया के बारे में जानने की आवश्यकता है क्योंकि वेदान्त अर्थात् हमारे उपनिषदों में हमारे ऋषियों-मुनियों ने इन शब्दों का बार-बार प्रयोग किया है ।

परमात्मा :
परमात्मा आनन्दमय है, नित्य, अनादि, असीम है । यह सर्वशक्तिमान, सर्वस्वरूप, सबके परम कारण तथा सर्वान्तर्यामी है । सांसारिक विषयों को ग्रहण करने वाली इन्द्रियों की वहां पहुंच नही हैं ।

जीवात्मा : जीवात्मा या आत्मा भी अनादि है । यह परमात्मा का ही अंश है परंतु है - ससीम अर्थात् जिसकी सीमा हो । यह सान्त है । यह भी नित्य है क्योंकि सत्स्वरूप है । यह शरीर से अलग है क्योंकि शरीर नश्वर है, अनित्य है और विनाशवान है । फिर भी लोग इन दोनों को एक मानते हैं । इससे बढ़कर अज्ञान और किसे कहा जाय ?

परमात्मा तथा जीवात्मा का सम्बन्ध
पानी और बुलबुला

परमात्मा तथा जीवात्मा के बीच के संबंधो को भगवान् श्रीरामकृष्ण परमहंस जी ने इस प्रकार प्रकाशित किया है - ‘‘पानी और बुलबुला वस्तुतः एक ही हैं । बुलबुला पानी में ही उत्पन्न होता है, पानी में ही रहता है और अंत में पानी में ही समा जाता है । उसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा वस्तुतः एक ही है । उनमें अंतर केवल उपाधि के तारतम्य का है - एक सान्त-सीमित है तो दूसरा अनन्त-असीम, एक आश्रित है तो दूसरा स्वतंत्र ।’’ यह अविद्या के ही कारण है कि हमें आत्मा ससीम प्रतीत होता है । अविद्या के नष्ट हो जाने पर आत्मा जो नितान्त अभेद है परमात्मा से, अपने स्वरूप को अपने आप ही प्रकट कर देता है अर्थात् वह भी परमात्मा ही हो जाता है ।

माया : जीवात्मा को परमात्मा से मिलने में जो बाधा डालता है वही माया अर्थात् प्रकृति है - सांख्य योग में इन तत्त्वों की गणना अर्थात् संख्या बताई गई है अतः इन्हें सांख्य योग कहा गया है । इसमें 5 ज्ञानेन्द्रिय, 5 कर्मेन्द्रिय, 5 महाभूत, 5 तन्मात्रायें तथा मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार के रूप में 24 तत्त्वों की गणना हुई है । ये वही तत्त्व हैं जो जीव को 25वें तत्व परमात्मा से मिलने में विक्षेप पैदा करता है ।माया को देखने की इच्छा से प्रार्थना करते हुए एक दिन भगवान श्री रामकृष्ण को इस प्रकार का दर्शन हुआ था - 

‘‘एक छोटा सा बिन्दू धीरे-धीरे बढ़ते हुए एक बालिका के रूप में परिणत हुआ । बालिका क्रमशः बड़ी हुई और उसके गर्भ हुआ, फिर उसने एक बच्चे को जन्म दिया और साथ-ही-साथ उसे निगल गई । इस प्रकार उसके गर्भ से अनेक बच्चे जन्मते गये और वह सबको निगलती गई । तब मेरी समझ में आया कि यही माया है।’’ अर्थात् जो अभी है और दूसरे पल नहीं । वही माया है । माया परमात्मा की श क्ति है । वह अनादि तथा त्रिगुणात्मिका अर्थात् सत्व, रज तथा तम युक्त है । माया से ही समस्त सृश्टि की उत्पत्ति होती है । माया न सत् है, न असत् और न सद्सत् ही, यह न नित्य है, न अनित्य और न नित्यानित्य ही, वह न खण्ड है न अखण्ड और न खण्डाखण्ड ही । वह अत्यद्भुत है, अवर्णनीय है ।

माया दो तरह की हैं एक है विद्या-माया और अविद्या-माया । विद्या-माया जीव को ईश्वर की ओर ले जाती है और अविद्या-माया उसे ईश्वर से दूर । ज्ञान, भक्ति, दया, वैराग्य- यह विद्या-माया का ही खेल है इन्हीं का आश्रय ले मनुश्य ईश्वर के समीप पहुँच सकता है । बिल्ली जब अपने बच्चे को दाॅँतों से पकड़ती है तो उसे कुछ नहीं होता, लेकिन जब चूहे को पकड़ती है तो चूहा मर जाता है । इसी तरह माया भक्त को नष्ट नहीं करती, भले ही वह दूसरों का विनाश कर डालती हैं । अर्थात् परमात्मा अशुद्ध मन, बुद्धि, चित्त से परे है परंतु वही परमात्मा विशुद्ध मन, बुद्धि, चित्त में अपने आप को प्रकट कर देते हैं । 

परमात्मा प्राप्ति के तकनीक:

यमराज ने नचिकेता को परमात्मा (या ब्रह्म ) की प्राप्ति के तकनीक दो चरणों में बतायें हैं -

प्रथम चरण - किसी वस्तु के पूर्ण ज्ञान के लिये उसके अस्तित्व और सार तत्व दोनों का जानना आवश्यक होता है । यही बात ब्रह्म के लिये भी लागू होता है उसके अस्तित्व के लिये ही किसी अनुभवी गुरू अर्थात् आत्मोपलब्ध श्रेश्ठ पुरूष को वरण करना चाहिए जिससे यह स्पष्ट हो सके कि हमारे शरीर, मन, इन्द्रियों से परे इस भौतिक जगत के पीछे कोई तत्व ब्रह्म है । इसी संदर्भ में प्रथम चरण की आवश्यकता है जब साधक निश्चिंत विश्वास से परमात्मा को स्वीकार कर लेता है और परमात्मा अवश्य हैं और अपने हृदय में ही विराजमान हैं तथा वे साधक को अवश्य मिलते हैं।

ऐसे दृढतम निश्चय से निरन्तर उसकी प्राप्ति के लिये उत्कंठा के साथ प्रयत्नशील रहता है तो उस परमात्मा का तात्विक, दिव्य स्वरूप उसके विशुद्ध हृदय में अपने आप प्रकट हो जाता है । इस प्रकार का ज्ञान होने से आत्मा के प्रति अज्ञान से सीमित देह की अज्ञान-भावना खंडित हो जाती है । फिर उस मनुष्य को भले ही वह न चाहे, ‘मैं मनुष्य हूँ’ इस भाव से भी मुक्ति मिल जाती है। इस तरह साधक देहात्मबुद्धि से मुक्त हो जाता है और साधक को यह बोध हो जाता है कि वह अनन्त, असीम, पूर्ण बोध युक्त परमात्मा अर्थात् ब्रह्म है तब वह ‘सोSहम्’ या ‘अहं ब्रह्मास्मि’की भावना से अनुप्राणित हो उठता है और विविधता से भरे विश्व से परे एकात्मकता के बोध को प्राप्त हो जाता है।

द्वितीय चरण - इस चरण में परमात्मा या ब्रह्म साक्षात्कार के बारे में बताते हुये कहा गया है कि ससीम मानव मन के लिए आत्मा या परमात्मा या ब्रह्म जो असीम चेतना की ज्योति है, आत्मा की भी आत्मा है, पर ध्यान करना अत्यंत दुश्कर है । अतः वेदान्त साधकों को कई जगत् विख्यात त्रैलोक्यवंदित उपमाओं द्वारा सहयोग करता है । यथा -

अंगुष्ठमात्रः पुरूशोन्तरात्मा
सदा जनानां हृदये संनिविश्ठ: ।
तं स्वाच्छरीरात्प्रवृहे न्मुंजादिवेशीकां धैर्येण ।
तं विद्यांच्छुक्रममृतं तं विद्यांच्छुक्रममृतमि ति ।।
(कठोपनिषद्, द्वितीय अध्याय, तृतीय बल्ली,श्लोक संख्या-17)

अन्तरात्मा-सब अन्तर्यामी, अंगुष्ठमात्रः-अंगुष्मात्र परिमाणवाला, पुरुषः-परम् पुरूष, सदा-सदैव, जनानाम्-मनुष्यों के, हृदये -हृदय में, सन्निविश्ठः-भलीभांति प्रविश्ट है, तम्-उसको, मुन्जात्-मूंज से, इशीकाम इव-सींक की भांति, स्वात्-अपने से, शरीरात्-शरीर से, धैर्येण-धीरतापूर्वक, प्रबृहेत्-पृथक करके देखे, तम्-उसी को, शुक्रम अमृतम् विधात्-विशुद्ध अमृतस्वरूप समझे, तम शुक्रम अमृतम् विधात्-और उसी को विशुद्ध अमृत स्वरूप समझे ।

अर्थात् ऐसी भावना करे कि अंगुष्ठ मात्र पुरूष, जो जीवों के हृदय में स्थित उनका अन्तरात्मा है, उसे धैर्यपूर्वक मूंज से सींक के निकालने के समान श रीर से पृथक है। श रीर से पृथक किये हुए उस अंगुष्ठ मात्र पुरूष को ही चिन्मात्र विशु द्ध अर्थात् निर्धूम अग्नि के समान तेजोमय और अमृतमय ब्रह्म जाने ।

इस तरह से प्रथम चरण में तो परमात्मा की प्राप्ति के योग्य सुदृढ़ मनःस्थिति तथा उदार हृदय की प्राप्ति की तकनीक बताई गई है परन्तु द्वितीय चरण में परमात्मा प्राप्ति का उपाय बताया गया है । वैसे ध्यान मे तो इसी स्थूल हृदय में इस प्रक्रिया को करना प्रतीत होता है परन्तु ध्यान की प्रगाढ़ अवस्था मे स्थूल हृदय के पीछे एक सूक्ष्य हृदय है वह खुल जाता है और फिरविशुद्ध अमृतमय ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है । इसके बाद कहने को कुछ नहीं रह जाता है, वह अवर्णनीय होता है । हम परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि वह हमारे हृदय में प्रकट होकर हमें कृतार्थ करें ।

अगर देखा जाये तो मूंज घास से सींक के निकालने की प्रक्रिया बडी नाजुक होती है । घास पत्ती में से कोमल भीतरी भाग को निकालना, बिना देानों को क्षति पहुंचाये बहुत कठिन होती है । यहां धीरज व सतत् प्रयास आवश्य क है ।

यह धीरज तथा प्रयत्नशीलता तब शक्य होती है जब साधक आश्वस्त हो जाता है कि दुष्कर साधना के बाद मिलने वाला फल मनुश्य के लिए श्रेष्ठतम, उच्चतम फल है, जो कि प्रज्ञा और अमरत्व है । अंत में यम घोषणा करते हैं कि आत्मा ही प्रकाश व अमृत है । वही मानव हृदय में सदा निवास करती हैं: "सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः।"

यह बोध ही आध्यात्म है । यही है -नचिकेता का मूर्तिमंत वेदांत का अनन्तिम दर्शन । वेदांत केवल घोषणा ही नहीं करता है - ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ का, बल्कि उसे प्रत्यक्ष भी करता है । अंत में कठोपनिषद उदारता पूर्वक कहता है - अन्योप्येवं योविद्ध्यातमं एवम्-और भी जो ब्रह्मसाक्षात्कार करेगा, उसी प्रकार अमर हो जायेगा । अर्थात् यह विद्या केवल नचिकेता के लिये ही नहीं है । यह तो सृष्टि एवं उसमें विराजमान ईश्वर द्वारा समस्त मानवजाति को दिया हुआ आशीर्वाद है ।

हम उठें, जागें, आगे बढ़ें एवं उसे स्वीकार करें - तभी यह धर्म सजीव हो उठेगा, जीवन का अंग बनेगा, हर गति में, हर लय में, रोम-रोम में समायेगा । वेदांत सार तभी साकार हो उठेगा-समग्र रूप से ।

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधत.

Labels: , , ,