ध्यानमार्ग पर चल कर ही अपने मूल स्वरूप का अनुभव कर सकते हैः सांई काका


‘हमारे भीतर ही ईश्वर,अल्लाह,येशु सभी विद्यमान है । हमारा निरपेक्ष स्वरूप ही आनंदमय है, वस्तुतः साधना ध्यान के माध्यम से सापेक्षता से निरपेक्षता की तरफ,सुख से आनंद की तरफ तथा अहंकार से समर्पण की तरफ की यात्रा है। हम अंतर्मुखी होकर ध्यानमार्ग पर चल कर अपने मूल स्वरूप का अनुभव कर सकते है। यह कहना है सिद्व योग शाक्तिपात पंरपरा के संत सांईकाका जी का।  विगत दिनों विश्व पुस्तक के मेले के अवसर पर उनके द्वारा संचलित ध्यान योग तथा आध्यत्मिक संकलन का पुस्तक तथा सीडी को आम दर्शकों द्वारा खासा पंसद किया गया। जिसका प्रचार प्रसार गुरू ओम क्रिएशन्स ने किया।

प्रसार सामग्री का मुख्य अभिप्रेम व्यक्ति मात्र को अपनी पूर्णता का अहसास करना है। वर्तमान युग की विडंबनाआं के दुर्भाग्यवश अज्ञानता के कारण सम्पूर्ण संसार विसंगतियों भरा प्रतीत है, तथा व्यक्ति को स्वयं से होने वाली दूरी का अहसास नही होता। वर्तमान जगत अहंकार से भरा है। मन,बुद्वि और चित का विचलित होना तथा कर्ताभाव की प्रबलता समान्य जीवन का अभिप्राय बन चुके है। सर्वत्र महत्वाकांक्षा तथा आपाधापी का भाव व्याप्त है। आपसी ईष्र्या,घृणाभाव बेचैनी आदि संसार के नियम बन चुके है।

ऐसी दशा में ध्यान साधना का महत्व समझ लेना बहुत आवश्यक है। सांई काका जी कहते है कि चारो तरफ अहेतुक कृपा की वर्षा हो रही है मगर अज्ञानता वश हम उसे प्राप्त करने में सक्षम नही है।ध्यान के माध्यम से हम आनंदस्वरूप का अनुभव करते हैं,एवं उस गुरूतत्व का भी अनुभव करते हैं जो कि कृपा का प्रतिरूप है । हर व्यक्ति अपने में परिपूर्ण है तथा अनुभव के स्तर पर हम समभाव तथा दृष्टाभाव की प्राप्ति करते हैं।

पुस्तक मेले के स्टाल पर प्रस्तुत पुस्तकें व सीडी सामान्य नहीं हैं। ये शक्तिरूपा हैं व इन्हीं के माध्यम से से काकाजी साधको पर कृपा बरसाते हैं। अनुभुति के उच्चतम स्तर पर हर व्यक्ति एक ही हैं। यही प्रेम की भाषा है। यदि वहिर्जगत का मापदंड विभिन्नता है तब अंतरजगत का मापदंड समभाव एकता व प्रेम है। काकाजी हमें समभाव,प्रेम,निरपेक्षता तथा समानता का अनुभव कराते है। वे हमें साधना के उस पथ पर लेकर चलते हैं जहां प्रेम तथा आनंदके सिवा कुछ भी नहीं है। वे हमे उस बिन्दू व भाव का भी अनुभव कराते है। जो निर्विकल्पक, गुणातीत व कालातीत भी है।

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