| ज़िन्दगी ज़िंदा दिली का नाम है मुर्दा दिल क्या ख़ाक जिया करते हैं -- नासिख़ |
ज़िन्दगी शायद इसी का नाम है दूरियाँ , मजबूरियाँ , तन्हाईयाँ --कैफ़ भोपाली |
| उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए --बशीर बद्र |
यही है ज़िंदगी ,कुछ ख़्वाब , कुछ उम्मीदें इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो --निदा फ़ाज़ली |
| उनकी याद, उनकी तमन्ना ,उनका ग़म कट रही है ज़िंदगी आराम से --शकील बदायूँनी |
ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा क़ाफ़िला साथ और सफ़र तन्हा --गुलज़ार |
| यूँ ज़िंदगी गुज़ार रहा हूँ तेरे बग़ैर जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूँ मैं --जिगर मुरादाबादी |
ज़िंदगी को भी तेरे दर से भिकारी की तरह इक पल के लिए रुकना है, गुज़र जाना है --अहमद फ़राज़ |
| ख़ामोश ज़िंदगी जो बसर कर रहे हैं हम गहरे समन्दरों में सफ़र कर रहे हैं हम --रईस अमरोहवी |
ज़िन्दगी से निपट रहा हूँ अभी मौत किया है मेरी बला जाने --हफीज़ जालंधरी |
| ज़िन्दगी जैसी तवक़्क़ो थी ,नहीं कुछ कम है हर घड़ी होता है एहसास , कहीं कुछ कम है तवक़्क़ो:अपेक्षा --शहरयार |
मुश्किलों के बीच सारी ज़िन्दगी ! कब मिली है इख्तियारी ज़िन्दगी ? इख्तिययरी :मन-मर्ज़ी की --रईस सिद्दीक़ी |
| कम से कम, हम में ये हौसला तो रहा ज़िंदगी काट दी इम्तिहानों के बीच --जाँनिसार अख़्तर |
ज़िंदगी का सुराग़ मिलता नहीं वक़्त की धूल उड़ा रहा हूँ मैं --जाफ़र शिराज़ी |
| ज़िंदगी एक गुज़रती हुई परछाई है आईना देखता रहता है तमाशा अपना --सौदा |
ज़िन्दगी भी तो पशेमाँ है यहाँ ला के मुझे ढूंडती है कोई हीला मेरे मर जाने का पशेमाँ: शर्मिंदा,हीला :बहाना --फ़ानी बदायूँनी |
| वो आये हैं पशेमाँ लाश पर अब तुझे ऐ ज़िन्दगी लाऊँ कहाँ से --मोमिन |
जलाता हूँ खुद को मैं शोलों में ग़म के मेरी ज़िन्दगी ही मेरी ख़ुदकुशी है --आरिफ़ लखनवी |
| हम ही दुनिया में क्या सब से अलग ,सब से निराले हैं हम ही को ज़िंदगी क्यों हर क़दम पर आज़माती है --एजाज़ अंसारी |
ज़िन्दगी बेशक तेरा इनाम है या रब,मगर सुन सके तो कुछ तेरे इनाम की बातें करें --हरी चंद अख़्तर |
| ज़िन्दगी दिल पे अजब सहेर सा करती जाए इक जगह ठहरी लगे, और गुज़रती जाए सहेर:जादू --ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ |
ज़िन्दगी काफ़ी नहीं थी,ज़िंदा रहने को 'तलब' यूँ अधूरी रह गयी अपनी मुरादों की किताब --तिलकराज तलब |
| ज़िन्दगी दूर है और मौत भी कुछ पास नहीं न तो साहिल है , न मँझदार है ,कैसे सोएं ? साहिल : समुद्र का किनारा --इक़बाल उमर |
ज़िन्दगी जब्र-ए-मुसलसल की तरह काटी है जाने किस उम्र की पाई है सजा , याद नहीं जब्र:ज़बर्दस्ती ,मुसलसल:लगातार --साग़र सिद्दीक़ी |
| ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं और क्या जुर्म है पता ही नहीं --कृश्न बिहारी नूर लखनवी |
ज़िंदा लाशें भी दूकानों में सजी हैं शायद बू-ए-खूं आती है खुलते हुए बाज़ारों से --मुज़फ़्फ़र वारसी |
| ज़िन्दगी से मौत तक मैं इक सरापा राज़ था कुछ यहाँ रौशन हुआ और कुछ वहाँ रौशन हुआ सरापा :सिर से पाँव तक --कैफ़ अहमद सिद्दीक़ी |
ज़िन्दगी बे- दरो-दीवार मकाँ है कोई कब से इक हसरत-ए-तामीर लिए बैठे हैं बे-दरो-दीवार मकाँ:बिना दीवार व दरवाज़े का घर हसरत:ख्वाहिश ,तामीर : निर्माण --शहाब जाफ़री |
| ज़िन्दगी में क़त्ल करके तुझको निकाला था,मगर क्या ख़बर थी फिर तिरा ही सामना हो जाएगा तिरा: तेरा --अली अहमद जलीली |
ज़िन्दगी से भी निबाहें , तुझे अपना भी कहें इस कशा-कश में शब-ओ-रोज़ गुज़र जाते हैं कशा-कश:खींच-तान, शब-ओ-रोज़:रात-दिन --महमूद अयाज़ |
| ज़िन्दगी फिर भी थी दुश्वार, बहुत ही दुश्वार हर क़दम साथ अगर एक मसीहा भी होता दुश्वार:कठिन, मसीहा :मसीह की तरह मदद्गार --परतौ रोहिला |
ज़िन्दगी है या कोई तूफ़ान है हम तो इस जीने के हाथों मर चले --ख़्वाजा मीर दर्द |
| ज़िन्दगी का यही अल्मिया है जिसको हम चाहें,वो कभी न मिले अल्मिया: दुखदायी --सुरूर बाराबंकवी |
ज़िन्दगी के वास्ते जो ज़हर-ए-ग़म पीता रहा हौसले से फिर भी इस दुनिया में वो जीता रहा --सय्यदा फ़रहत |
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