फिल्म समीक्षा जेड प्लस’

प्रेमबाबू शर्मा 

राजकीय कामकाज, लालफीताशाही और भ्रष्टाचार पर कटाक्ष किया है डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म ‘जेड प्लस’ । फिल्म की कहानी को रोचक बनाने के लिए हास्य मसाले का जमकर प्रयोग हुआ है। कथानक एक आम आदमी के इर्द गिर्द घूमता है,और घटनाएं भी हमारे आस पास की है। लेखक राम कुमार सिंह वर्तमान में नेताओं और आम आदमी की मनोदशा की बहुत ही मन से गढा हैं।

असलम की पंचर लगाने की दुकान है, और उसकी पत्नी हमीदा (मोना सिंह) की राजस्थानी जूतियों की दुकान है। उनके परिवार में एक बच्चा है। घर का खर्चा बहुत ही कठनाई से चलता हैै। एक दिन पता चलता है पीर की दरगाह पर चादर चढ़ाने के वास्ते देश के प्रधानमंत्री (कुलभूषण खरबंदा) आने वाले हैं। अब इसे किस्मत का फूटना कहिये या चमकना कि जिस दिन प्रधानमंत्री को दरगाह में चादर चढ़ानी है, उस दिन दरगाह में खादिम की डयूटी असलम को देनी है। यानी असलम प्रधानमंत्री के साथ पूरे 15-20 मिनट तक अकेला रहेगा। इसके बाद होता ये है कि प्रधानमंत्री असलम से खुश होकर उसे कुछ मांगने के लिए कहते हैं। बेचारा असलम, जो अपने पड़ोसी हबीब (मुकेश तिवारी) की हरकतों से परेशान रहता है, उससे निजात पाने की गुहार लगा देता है। प्रधानमंत्री के आदेश पर उसे तुरंत जेड प्लस सुरक्षा दे दी जाती है। इस सुरक्षा के बाद हबीब बेशक जेल चला जाता है, लेकिन असलम और हमीदा का जीना मुहाल हो जाता है। जेड प्लस सुरक्षा के कारण असलम पूरे इलाके में आम से खास इंसान बन जाता है। इलाके में उसका दबदबा देख राज्य के मुख्यमंत्री (अनिल रस्तोगी) द्वारा उसे पाटी ज्वाइन करने के साथ-साथ चुनाव लड़ने का भी मौका दिया जाता है। लेकिन सिर्फ असलम और प्रधानमंत्री के सेक्रेटरी जनादन दीक्षित (केके रैना) को ही पता है कि ये जेड प्लस सुरक्षा बस एक गलती का नतीजा है, जो प्रधानमंत्री से हो गई थी। लेकिन ये सारी बातें हल्के-फुल्के अंदाज में बेहद सहजता से कही गई हैं। ठीक ऐसे ही, जब आम आदमी का बस किसी बात पर नहीं चलता तो वह अपने ऊपर आई आफत को सहजता से लेने लगता है। कलाकारों के अभिनय की बारीकी में न जाएं तो ये फिल्म लगभग हर सीन में बांधे रखती है। आदिल हुसैन अब से पहले सूटेड-बूटेड रोल करते आए हैं। इस साधारण से किरदार में उन्होंने अच्छा काम किया है। मोना सिंह कुछेक सीन्स में जमी हैं। मुकेश तिवारी और केके रैना तो हैं ही अच्छे कलाकार। संजय मिश्र के किरदार का फिल्म में होना काफी हद तक गैरजरूरी और बेबुनियाद-सा लगता है।इसके अलावा लेखक ने पात्रों के छद्म नामों के सहारे पॉलिटिक्स में जमे रीयल लाइफ किरदारों को मलाई मार-मार कर खूब लपेटा है। संवादों में गहराई है और ये कई जगह बेहद चुटीले हैं। बड़े बजट की बड़े सितारों वाली फ्लॉप फिल्मों से अगर मन ऊब गया है तो आम आदमी की कहानी कहती ये फिल्म जरूर देखें।

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