भाषा एवं भाव


डॉ. सरोज व्यास
प्रधानाचार्य,
इंदरप्रस्थ विश्व विद्यालय, दिल्ली


मेरे द्वारा हिन्दी में लिखित सूचना दिया जाना जितनी सामान्य बात है, उतना ही कौतूहल का विषय सहयोगियों के लिए होता है | परम्परा का निर्वाह करते हुये मैं भी यथासंभव अंग्रेजी भाषा में ही नोटिस देने लगी, लिखित नोटिस दिया जाना मेरे लिए अंतिम प्रयास जैसा होता है | प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के लक्ष्य “सफाई अभियान” में सहयोग के लिए प्रतिबद्ध मेरे संस्थान में कार्यरत सहयोगियों के लिए सूचनार्थ मैंने हिन्दी में लिखित आदेश दिया | उद्देश्य स्पष्ट था, अचानक कुछ नयापन संभवतया लोगों में ऊर्जा का संचार करें, संतोष हुआ यह देखकर कि सहयोगी सूचना को पढ़ ही नहीं रहे थे, अपितु आपस में एक-दूसरे को समझाने में भी व्यस्त नजर आये | अपनी ओर से मैंने सामान्य हिन्दी शब्दों का प्रयोग किया था तथापि शब्दों का अर्थ पूछा जाना मुझे आश्चर्य में डाल रहा था | हिन्दी भाषी राज्यों के मध्यम वर्गीय पारिवारिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने वाले, तथाकथित राष्ट्र निर्माता, शिक्षा के कर्णधार शिक्षको के द्वारा हिन्दी शब्दों का अर्थ अंग्रेजी में समझे जाने पर मेरा मन व्यथित हो रहा था किन्तु प्रसन्नता इस बात कि भी थी कि वे प्रयत्नशील थे |

विचार उन लगाम रहित स्वछंद घोड़ों के समान होते है, जो स्वेच्छा से विचरण करते है, तीव्रता से आते-जाते मेरे मन के भावों की दशा भी लगभग वैसी ही थी | सोच रही थी कोई भी तो विदेशी पृष्ठभूमि वाला यहाँ नहीं है तथा अहिंदी भाषी राज्यों का प्रतिनिधित्व भी नगण्य है, फिर क्यों यह लोग सामान्य हिन्दी को पढ़ने और लिखने में सक्षम नहीं है ? कमी कहाँ रही होगी ? पाठयक्रम में, शिक्षण विधियों में, शैक्षिक दृष्टिकोण में अथवा हमारी मानसिकता में ?

शिक्षित व्यक्ति के लिए कम से कम एक और साक्षर के लिए तीन भाषाओं का ज्ञान होना अनिवार्य है, क्योकि भाषा अभिव्यक्ति का सुगम और सशक्त माध्यम है | प्रथम क्षेत्रीय भाषा ( जिस गाँव, शहर और राज्य में व्यक्ति का जन्म हुआ हो तथा जिस स्थान का वह मूल निवासी है ), राष्ट्र भाषा ( हिन्दी ) और एक विदेशी भाषा ( अंग्रेजी ) | खेद इस बात का था कि दृढ़ता से कोई भी इसका प्रमाण देने का साहस नहीं कर रहा था | मेरी पीड़ा को कम करने का एक ही उपाय शेष बचा था, और वह था हम सबके मध्य उपस्थित भाषा विशेषज्ञ को सम्मानित करना, लेकिन इस सौभाग्य से भी मैं वंचित रही | उपस्थित समूह तथा मेरे साथ कार्यरत व्यक्तियों में से कोई भी इस कसौटी पर खरा नहीं उतरा |

मैं हिन्दी भाषी राज्य से सम्बंद्ध नहीं रखती हूँ, किन्तु मेरी शिक्षा-दीक्षा हिन्दी माध्यम से हुई | हिन्दी को जानने का दावा किया जाना तो निश्चित रूप से अतिश्योक्ति होगा लेकिन अच्छी हिन्दी लिखने, बोलने एवं समझने में समर्थ हूँ यह कहने में कदापि संकोच नहीं होता | परिवार में हम लोग अपनी क्षेत्रीय भाषा शेखावाटी ( मारवाड़ी ) में ही बातचीत करना पसंद करते है, वही दूसरी ओर सार्वजनिक जीवन में विचारों का आदान–प्रदान हिन्दी भाषा के माध्यम से किया जाता है | व्यावसायिक अनिवार्यता के कारण अंग्रेजी भाषा को भी प्रयोग में लाया जाना अपेक्षित है तथापि हिन्दी मुझे अतिप्रिय है | मुझे हिन्दी अभिव्यक्ति का सुसज्जित श्रृंगार सा प्रतीत होती है, जैसे प्रेयसी के आभूषण प्रेमी को मौन संदेश देते है, उसी भांति हिन्दी मे की गई अभिव्यक्ति श्रौता एवं पाठक के मन और आत्मा को भाव-विभोर कर देती है | यह कहा जाना अपवाद नहीं होगा कि अंग्रेजी जहाँ मस्तिष्क से निकल कर मस्तिष्क तक पहुँचती है, वही हिन्दी मन से आत्मा का सफर तय करती है क्योकि इस भाषा में भाव और संवेग है | हिन्दी में शब्दों का अर्थ स्पष्ट है, अंग्रेजी की भांति अर्थ का अनर्थ करके भ्रम एवं संशय उत्पन्न नहीं होता |

मेरी एक सहेली कुछ दिनों से चुपचुप-सी उदास परेशान लग रही थी | हमेशा ऊर्जा से परिपूर्ण, सकारात्मक सोच की धनी, सबको साथ लेकर चलने वाली हंसमुख प्रौढ़ा को ऐसे देखना विचलित कर रहा था | मैं जानती थी कि व्यावसायिक कर्मस्थली पर सब सामान्य था, क्योकि हम दोनों एक ही स्थान पर कार्यरत है | घर के सभी सदस्यों की आदरणीया, संतान एवं शिष्यों की आदर्श गुरू माता एवं अपने पति की स्नेहा, उसे गृहस्थ जीवन में कोई कष्ट हो यह लगभग असंभव जैसा है, तथापि मैंने पूछ ही लिया घर पर सब ठीक है ! “ALL IS WELL” कह कर अपने कार्य में तल्लीन हो गई | दो दिन बाद मैंने पुन: पूछा – “क्या बात है, क्यो परेशान हो, क्या छिपा रही हो”? कुछ देर मौन के उपरांत वह बोली – “मन खराब है” | बनावटी क्रोध से मैंने कहा – “कोई कारण तो होगा मन की खराबी का, जब तक कहोगी नहीं उपचार कैसे होगा ? तुम ही तो कहती हो प्रत्येक समस्या का समाधान होता है, फिर क्यो इस प्रकार दुखी: हो”?

“दिमाग खराब है मेरा, मैं हूँ कि लोगों कि इतनी परवाह करती हूँ, हर पल सबकी खुशी का ख्याल रहता है मुझे, और सामने वाले को फर्क ही नहीं पड़ता | पता है तुम्हें! आज तो हद हो गई, मुझे ज्ञान दिया जा रहा था कि मैं किसी की सुनती नहीं हूँ, समझती नहीं हूँ, मेरे व्यवहार और पत्रों से सामने वाले को असुविधा हो सकती हैं, शर्मिंदगी उठानी पड़ सकती हैं आदि-आदि | तुम ही बताओ कभी एक क्षण के लिए भी मेरे मन में किसी भी संबंध को लेकर विकार उत्पन्न हो सकता है क्या ? और हाँ जिनकी मैं बात कर रही हूँ वह मेरे लिए आराध्य है, जिन्हें पूजा जा सकता है भोगा नहीं, वे सोच भी कैसे सकते है | मन कि भावनाओं को यथावत लिख देना अपराध है क्या ? कहते है, आपने जो शब्द लिखा वह किसी विशेष द्वारा विशेष को लिखा जाता है, इतना तो आपको ज्ञात होना ही चाहिए | क्या समझा है मुझे! स्नेह एवं अपनत्व का रिश्ता है उनसे मेरा, जिसका अंत मेरी मृत्यु उपरांत ही संभव है | मेरी भावनाओं को समाप्त करने का सामर्थ्य उनमें नहीं, लिखने और बोलने पर ही तो रोक लगा सकते है, देखना आप! जब अपनी गलती महसूस होगी तब स्वयं ही बात करेंगे” |

मुझे मंद-मंद मुस्कुराता देख कर कहने लगी – “इसमे हँसने की क्या बात है” ? मैंने कहा – “अच्छा बताओं तो सही लिखा क्या था”? कुछ भी तो नहीं बस “I MISS U” लिखा था | मैं पुन: हँसने लगी और बोली “क्यो लिखा”? प्रतिउत्तर मे वह कहने लगी – “ अरे! क्यों से क्या मतलब है तुम्हारा, याद आ रही थी, ऐसे ही लिख दिया और क्या लिखती miss कर रही थी बस! क्यों किसी को याद करना और उसे बता देना कि मैं आपको याद कर रही हूँ अपराध है क्या ? मुझे उसकी नादानी पर हँसी और निर्मल मासूमियत पर द्या आ गई । लगभग उसे आलिंगन बद्ध करते हुये मैंने कहा – “शांत हो जाओ ! अपनी-अपनी जगह तुम दोनों ही सही हो, तुम्हारी अभिव्यक्ति निश्छल है और तुम्हारे मित्र की प्रतिक्रिया उचित | यदि दोष देना ही है, तो सामान्य लोगों की मानसिकता को दिया जाना चाहिए” |

“भारतीय संस्कृति-सभ्यता में पले-बढ़े हमारी शिक्षा-दीक्षा भले ही अंग्रेजी माध्यम वाले Convent Schools में हुई हो, समय एवं स्थान की आवश्यकता के अनुसार हमनें अपने भोजन, परिधान, सुख-सुविधाओं एवं रहन-सहन में चाहें पाश्चात्य संस्कृति का समावेश किया हों तथापि हमारे मूल्य एवं मर्यादाओं का संरक्षण कुछ सभ्य, संस्कारित तथा मर्यादित स्त्री-पुरुषों द्वारा आज भी हों रहा है | गौरव की बात है कि कुछ विलक्षण व्यक्तित्व, जो हमारे स्नेही-स्वजन है, आज भी भारतीय संस्कृति के अभौतिक मूल्यों का अनुसरण कर रहे है | तुम्हेँ समझना होगा कि तुम्हारे सखा “मनसा वाचा कर्मणा” की कहावत को केवल सैद्धांतिक रूप से स्वीकार नहीं करते अपितु वे स्व-व्यवहार एवं चरित्र में भी इसे अंगीकार करते है | भौतिक मूल्यों एवं आधुनिक संसाधनों के उपभोगी द्वारा अभौतिक मूल्यों को यथावत स्वीकार कर लेना एवं मर्यादित होना “भीष्म प्रतिज्ञा” जैसा है | अंग्रेजी में जिन शब्दों का प्रयोग प्रणय सम्बन्धों में किया जाता है, उन शब्दों का प्रयोग उन्हें मर्यादित संबंधों में स्वीकार्य नहीं” | मैंने अंत में कहा- “अपेक्षा करती हूँ, कि भाषा और भाव के कारण उत्पन्न मतभेद ‘मन-भेद’ में परिवर्तित नहीं होंगे” |

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