मौन की महिमा


डॉ श्वेता गुप्ता  

किसी विद्वान का कथन है की मनुष्य अपने बोलने और पशु अपने न बोलने के कारण दुःख उठाता है | वाणी की महिमा साहित्य में सर्वत्र विद्यमान है किन्तु क्या आपने कभी मौन की महिमा पर विचार किया है ? शब्दों का चयन जितना महत्वपूर्ण होता है उतना ही महत्वपूर्ण होता है बोलने के स्थान, समय, स्थिती एवं पात्र का चयन जिससे की हम बात कर रहें हैं |

कई बार बोलने के समय व स्थान का ध्यान न रख पाने के कारण हम सामान्य स्थिति को भी असमान्य या परिहास पूर्ण बना देते हैं किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण है स्थिती एवं पात्र का विचार | जब कोई व्यक्ति अत्यधिक उत्तेजित एवं क्रोध में हो तो ऐसी स्थीति में मौन रहना ही सबसे अच्छा विकल्प होता क्योकि वह उस समय कुछ भी सुन व समझ पाने में असमर्थ होता है | मौन रहने का यह कदापि मतलब नही होता की आप गलत है बल्कि आप स्थिति को सँभालने में अपना योगदान दे रहें हैं क्योकि वाद-विवाद धीरे-धीरे अहंकार का स्थान ले लेता है और ऐसी स्थिती में या तो आप स्वयं कष्ट उठाते हैं या सामर्थ्यवान होने पर सामने वाले को कष्ट पहुँचाते हैं फिर आपको क्या उचित लगा, बोलना या मौन रहना |

जीवन में कई प्रकार के सम्बन्ध होते हैं कई तो ऐसे होते हैं जिनमे भाषा की आवश्यकता ही नही होती, बिना कहे ही हम सामने वाले की आवश्यकता को समझ लेते हैं जैसे माँ और नवजात शिशु | कई संबंधो में मर्यादा की आवश्यकता नही होती जैसे अत्यधिक अन्तरंग मित्र, किन्तु कई सम्बन्ध ऐसे होते है जिनमे मौन की अत्यधिक आवश्यकता होती है और अपने आपको भाषा से साबित करने की तो कतई आवश्यकता नही होती जैसे माता-पिता, शिक्षक एवं नियोक्ता | माता-पिता अपनी संतान से भली प्रकार वाकिफ होते हैं फिर भी अत्यधिक अपेक्षा एवं असुरक्षित महसूस करने के कारण आपको डांटते हैं एवं सब कुछ जानते समझते हुये भी आपसे ऐसी अपेक्षा रखते हैं की आप उसकी बात को न काटे | ऐसे में आप न केवल चुप रह कर अपने मान में वृद्धि करते है वरन भविष्य में स्वयं की बात रखने के मौके भी सुरक्षित करतें है. 

अब आपको ऐसा प्रतीत हो रहा होगा की चुप रहने का क्या औचित्य है जब तक बोलेंगे नही खुद को सही कैसे सिद्ध करेंगे ? और आप उपर्युक्त लाइनों से बिल्कुल ही असहमत होंगे , किन्तु अब मै आपसे अनुरोध करूंगी की अपने सोचने के नजरिये को जरा सा बदल कर देखिये ,क्योकि हजारों की भीड़ में अगर कुछ लोग अपनी अलग पहचान बनाने में सफल हुए है तो वह सिर्फ अपने अलग प्रकार के सोचने के ढंग के कारण |

सोचिये जब माता-पिता, शिक्षक या नियोक्ता आपके ऊपर क्रोधित हो या आपकी सोच से सहमत न हों और जब आपके ऊपर अपना क्षोभ प्रकट कर रहे होते हैं तो उस वक्त उनकी मानसिकता आपसे कही भी सहमत नही होती और वे आपके प्रत्याशित उत्तर प्रति-उत्तर एवं उत्पन्न होने वाले विवादों हेतु तैयार होते हैं साथ ही साथ स्वयं के विचारों को आपके उपर प्रभारित करने को पूर्णत तत्पर होते हैं| उन्हें पता होता है कि यदि आप सही है तो आप अपने को सही साबित करने पूरा प्रयास करेंगे और यदि सही नही हैं तो भी अपने को सही साबित करने का प्रयास करेंगे | उस समय यदि आप अपने विचारो को प्रेषित करते हैं तो घर्षण एवं ताप के अतिरिक्त कुछ नही उत्पन्न होता किन्तु वही सोचिये यदि आप मौन रहतें हैं बिल्कुल मौन तो क्या होता है? कोई घर्षण नही, कोई ताप नही ,कोई वाद विवाद नही और न ही कोई उत्तर-प्रतिउत्तर ९० प्रतिशत में आप सामने वाले को पुन: सोचने के विकल्प के साथ छोड़ देते हैं , १० प्रतिशत में यह भी हो सकता है की वह आपको नितांत ढीठ समझ ले उस अवस्था में भी वह पुनः एक कारगर उपाय हेतु विचार जरुर करेगे | दोनों ही स्थितियों में वाद-विवाद एवं मान हनन तो नही ही होगा एवं संभव है भविष्य में आपको अपनी बात को शांतिपूर्वक रखने का मौका भी मिले | मौन की महिमा का प्रयोग अवश्य ही आपके जीवन को एक नयी दिशा प्रदान करने में सफल होगा |

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