स्वस्थ समाज संरचना में लेखकों की भूमिका


नवीन कुमार 

समाज की सबसे अहम इकाई होती है -व्यक्ति। व्यक्ति अगर स्वस्थ है तो समाज भी स्वस्थ होगा। स्वस्थ का अर्थ है - स्वरूप में स्थित होना । पर स्वरूप क्या है ? यह एक गंभीर चिंतन का विषय  है । हमारे ऋषियों, मुनियों, तीर्थकरों एवं विचारकों ने इस पर गंभीर चिंतन किया है। अगर हम अपने इतिहास को देखें तो हम पायेंगे कि चिंतन तथा लेखन की अति प्राचीन परंपरा यहाँ पर रही है - सम्पूर्ण वेद, पुराण, उपनिषद  इत्यादि प्रश्न  तथा उत्तर के ही रूप में रहा है। जीवन के विभिन्न पहलुओं सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक तथा दार्शनिक व्याखायें प्रस्तुत की गई हैं - यहाँ पर। ये परंपरायें गुरू- शिष्य परंपरा के रूप में श्रुति तथा स्मृति के आधार पर आगे बढ़ती गई । परन्तु लिपि के विकास होने के बाद से ये परंपरा लिपिबद्ध होने लगी। ऐसी मान्यता है कि हमारे सम्पूर्ण वेद- वेदांत  इत्यादि को लिपिबद्ध करने का कार्य प्रथम पूज्य श्री गणपति जी ने किया । इस तरह से प्रथम लेखक होने का गौरव श्री गणपति जी को ही प्राप्त हुआ। उस समय का सम्पूर्ण समाज उनके द्वारा लिखित विचारों से ही प्रेरित हुआ और आज भी वे विचार किसी-न-किसी रूप में हमें निर्देशित भी कर रहे हैं । परन्तु वे विचार आज धूमिल-से हो गये हैं। 

अगर आज हम अपने चारों ओर होने वाले बदलाव की ओर दृष्टिपात  करें तो पायेंगे कि चारों ओर भय का, भूख का, भ्रष्ट आचरण का बोलबाला-सा हो गया है। ऐसी बात नहीं है कि पहले ऐसा कभी नही हुआ हो। पहले से भी ऐसा होता आया है -अगर हम वाल्मिकी रामायण की बात करें तो हम पायेंगे कि इसकी रचना के पहले से ही इसकी भूमिका बननी शुरू हो गई थी। उस समय के सभी विचारकों ने एक सत्र आहुत किया था जिसमें विचार मंथन हुआ था आदर्शों के क्षरण के बारे में। उस समय भी एक दूसरे के बीच का संबधं तार-तार हो रहा था। उसे पुनस्र्थापित करने की उन्हें आवश्यकता हुई। उन्होनें समाज के सामने एक आदर्श पुरुष को सामने रखा जिसमें सभी मानव मूल्यों का पूर्ण विकास हुआ था - उन्हें  ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ के नाम से विभूषित किया था। समाज में विभिन्न व्यक्तियों के बीच कैसा आदर्श हो उसे पुनर्भाषित तथा पुनर्स्थापित  किया गया । हमारे आसन्न भूतकाल में भी सुर, तुलसी, कबीर, आचार्य तुलसी और कई सूफियों, संतों ने भी अपनी लेखनी से स्वस्थ समाज की संरचना में सहयोग दिया। 

हमारे जीवन- दर्शन के सूत्र-वाक्य- सत्यमेव जयते, अहिंसा परमो धर्मः, आचार्य देवो भवः, मातृ देवो भवः, पितृ देवो भवः, अतिथि देवो भवः, परोपकाराय पुण्याय, पायाय पर पडीनम, वसुधैव कुटुंबकम्, सर्वंखलिवदं ब्रह्म, शांतिः  शांतिरेव शांतिः  अर्थात यहाँ पर शांति को भी शांति मिलने की बातें सोची समझी तथा जीवन में उतारी जाती थी। ये बातें मानवीय जीवन के सरोकारों को भी पूरी तरह निर्देशित करती रही । परंतु आज वही हिन्दोस्तान ‘जहां सत्य और अहिंसा का पग-पग पर लगता डेरा ’ हिंसा में आंकठ डूब सा गया है - सभी जगह हिंसा, अशंतोष, भ्रश्टाचार फलता-फूलता हुआ नजर आ रहा है  वसुधैव कुटुंबकम् की जगह वसुधैव ग्रामम् (Global Village) बनाकर लूटने का तंत्र विकसित हो रहा है। कला-संस्कृति बाजारू हो रही है - एक दूसरे के प्रति संबंध भी। सारा देश जातियता, सांप्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रीयवाद् से प्रभावित हो रहा है। यही नहीं देश की एकता एंवम् अखंडता के तंतु भी चरमरा रहे है। आज सावधान होकर सधे हुए कदमों से आगे बढने की आवश्यकता  है - ‘‘न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तां वालों। तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दांस्तानों में ।"

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