सच्चा सुख

बासुदेव शर्मा 

परमेश्वर किसी कर्म में प्रवृत नहीं करता, कर्म और कर्मफल को उत्पन्न नहीं करता, ये सब प्रवृति द्वारा होते रहते हैं. परमेश्वर किसी के पुण्य तथा पाप को नहीं लेता. ज्ञान जो अज्ञान से आच्छादित है, उससे जीव मोह को प्राप्त हो जाते हैं. परन्तु आत्मज्ञान के द्वारा जिनका अज्ञान नष्ट हो गया है, उनका वह आत्मज्ञान परमेश्वर के रूप को ऐसा भासित करता, जिस प्रकार सूर्य सम्पूर्ण संसार को प्रकाशित कर देता है. (यानि सब पर समान दृष्टि रहती है, सूर्य सब पर समान रूप से प्रकाश डालता है, चाहे वह ब्राह्मण, गाय, कुत्ता और चंडाल ) क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सर्वत्र समान है. जिसके मन में इस तरह की समानता  उत्पन्न हो गई है. उन्होंने इस लोक में जन्म मरण रूपी संसार को जीत लिया है- यह तभी संभव है जिसकी बुद्धि स्थिर है और उसे परमात्मा में लगाते हैं, उसी में निष्ठां रखते हैं और जो सदा उसी के ध्यान में लगे हैं. ज्ञान द्वारा जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं. कैसे संभव है - बाहरी पदार्थों में जो चित को आसक्त नहीं होने देता. इन्द्रियों के स्पर्श से जो भोग है उनमे लिप्त नहीं होता ( होने ही नहीं देता ), काम क्रोध को सहन करने में समर्थ होता है, कुबुद्धि दूर हो गई , मन को जिन्होंने वश में कर लिया, इच्छा, भय से दूर है. जो परमात्मा को सब यज्ञों और तपों का भोक्ता, संपूर्ण लोकों का स्वामी और सब प्राणियों का मित्र जानते हैं, उन्ही को शांति प्राप्त होती है वह योगी और सच्चा सुखी है.

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