खुशहाली की खेती

मधुरिता 

अनाज की खेती तो होती ही है, आज के परिवेश को देखते हुए हमें ख़ुशी व आनंद की भी खेती करनी होगी. पृथ्वी पर तो खेती होती ही है. हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती पृथ्वी से ही करते हैं - जैसे अन्न से भूख की, वस्त्र की. शारीरिक आवरण के लिए तथा रहने के लिए जो मकान बंगले आदि बनाते हैं वे सभी पृथ्वी से ही प्राप्त होते हैं.

फिर हम दुखी क्यों हैं ? हमें खुशहाली की भी खेती करनी होगी और वह खेती होगी हमारे मन में, चित में. ये सब सुख अपने आप नहीं आता. ये हमारे कर्म फल से चालित है. नियम से कर्म करें तो ही सभी लोगों को सभी कुछ मिलता है-- ब्रह्म आनंद. ये सब ख़ुशी कुछ समय के लिए होता है. देवता लोग भी आंतरिक आनद को पाने को लालायित होते रहते हैं.

बाह्य ख़ुशी तो आवरण मात्र है, वह क्षणिक है. हमें परम शांति प्रदान नहीं करती. हमने मिठाई खाई, कुछ देर स्वाद रहा फिर वैसे के वैसे रहे, फिर इसी तरह घूमने गए कुछ समय सुख मिला फिर -------. हमारे जीवन में जो भी आभाव है, आंतरिक कमी के कारण की है. आंतरिक खेती में उदारता, सत्यवादिता, करुणा, अहिंसा, जीवों की मदद व संतोष धर्म - जिस प्राणी में ये सभी गुण आ जाएँ, वास्तव में वो ही परम सुखी व नित्य आनंद रहेगा व हम हर पल खुश रहेंगे.

जितनी मात्रा में हमारे अन्दर सत्व गुणों को विकसित करते जायेंगे हम आनंद स्वरुप परमात्मा को आसानी से प्राप्त कर सकेंगे. आंतरिक मलिनता के कारण ही करोडपति से लेकर मजदूर तक सभी दुखी हैं. शारीर को टिप टॉप सभी रख लेते हैं पर आंतरिक सुन्दरता कम होती जा रही है. इस ओर कोई विचार नहीं करना चाहते और दुःख से दुखी होना पसंद कर रहें हैं.

* धर्म के बिना सुख की कल्पना ही नहीं की जा सकती.
* जब किसी व्यक्ति को करोड़ों का लोभ दिया जाता है, वह नहीं लेता तो उस समय का आनंद वो ही अनुभव कर सकता है, जिसने लोभ का त्याग किया.
* बिना दहेज़ के शादी से जो ख़ुशी मिलती है उसे वो ही जान सकता है, जिसने दहेज़ न लिया हो.
* जब व्यकि निष्काम होकर कर्म करता है, उसका आनद वो ही ले पता है, जिसने स्वार्थ का त्याग किया हो.
* ये सद्कर्म हमारे पीछे के दुष्परिणाम को ख़त्म करते हैं और भविष्य को सुखद बना कर वर्तमान में ख़ुशी की सुगंध बिखेरतें हैं.

इस तरह आप भी खुशहाली की खेती कर सकतें हैं.

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