साहित्य का गुण आत्मसंवर्धन है : ‘परिचय दास

सिद्वेश राय

बहुमुखी प्रतीभा के धनी, हिन्दी व भोजपुरी भाषा के जाने-माने साहित्यकार व हिन्दी अकादमी तथा मैथिली-भोजपुरी अकादमी के सचिव श्री रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव ‘परिचय दास जी’ को हाल ही में भारतीय अनुवाद परिषद्, दिल्ली द्वारा ‘द्विवागीश’ सम्मान प्रदान करने की घोषणा की गई है। विदित हो कि श्री दास का जन्म उत्तर प्रदेश के मऊ जिले के रामपुर गांव में हुआ। उन्होंने हिन्दी साहित्य से परास्नातक एवं शोधकार्य (डाक्ट्रेट) किया। श्री दास की दस से अधिक भोजपुरी-हिन्दी कविताओं की द्विभाषी पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें ‘धूसर कविता’, ‘कविता चतुर्थी’, ‘एक नया विन्यास’, ‘पृथ्वी से रस ले के’, ‘संसद भवन की छत्त पर खड़ा हो के’ एवं ‘आकांक्षा से अधिक सत्वर’ आदि बहुचर्चित रहे हैं। निबंधात्मक व आलोचनात्मक विषयों में समान अधिकार रखते हुए समकालीन परिवेश पर गहरी पकड़ रखते हैं। लम्बे अंतराल तक विशिष्ट रचनाओं एवं शोधकार्यों में अपने जीवन के एक महत्त्वपूर्ण दौर का अंतः हृदय से समर्पण किया है। नाटक, लोक-संस्कृति, सम्पादन, सांस्कृतिक-विमर्श आदि विषयों पर इनकी गहरी पकड़ रही है। श्री दास की यायावरी प्रकृति का दर्शन उनकी थारू जनजाति की संस्कृति पर किए गए शोधकार्य से होता है। यही कारण है कि वह एक सहज स्वीकार्य सृजनकत्र्ता होते दिखते हैं। हाल ही में स्वामी विवेकानंद विश्व विद्यालय, मेरठ ने अपनी (हिन्दी व भारतीय संस्कृति) विभाग का मानद प्रोफेसर नियुक्त किया है। श्री परिचय दास जी का द्वारका परिचय के मुख्य सम्पादक सिद्धेश राय से भेटवार्ता के प्रमुख अंश:

 रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव
‘परिचय दास’
 
श्रीमान! साहित्य सृजन में भाषा के चुनाव का आपके लिए क्या अर्थ है?
सबसे पहले तो, यह है कि ‘मैं किसके लिए लिखता हूँ?’ जिसके लिए ‘मैं लिखता हूँ, उसके लिए भाषा का चुनाव क्या अर्थ रखता है?’ यह प्रश्न अत्यंत मूल्यवान है कि अंग्रेज़ी या अन्य प्रभुत्वकारी भाषाएं ऐसा क्या नहीं अभिव्यक्त कर पातीं जो, भोजपुरी करती है। वास्तव में अंग्रेज़ी का कथ्य वह हो ही नहीं सकता जो, भोजपुरी का होगा।

भोजपुरी भाषा में अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में कुछ बताएं?
जब मैं भोजपुरी में साहित्य रचता हूँ तो, ध्वनियों, शब्दों और वाक्यांशों में शब्दक्रमों की विशिष्टता तथा उन्हें क्रमबद्ध रूप देने की विशिष्ट भंगिमा से पता चलता है कि भाषा मेरे लिए कितनी महत्त्वपूर्ण है। भाव, बिम्ब एवं लय संशलेषण को वाचिक व लिखित माध्यम से सम्प्रेषित करने में भाषा की मेरे लिए अद्वितीयता है। सम्प्रेषणीयता से संस्कृति का निर्माण होता है। मेरे शिल्प के सर्जन में किसान-शक्ति की रचनात्मकता है, साथ ही, परम्परा और समकाल को नूतन सम्भावना से देखने का प्रत्यय भी। किसान को अपनी मातृभाषा बोलने व एक बृहत्तर राष्ट्रीय या महाद्वीपीय भूगोल से जुड़े रहने में कोई नहीं दिखाई देता। हमारे शिल्प के उपकरण आज़ के चराचर को संदर्भित करते हैं। प्राकृत व अपभ्रंश की ऐतिहासिक अवस्थिति को देखते हुए आज़ की भाषिक-साहित्यिक रूपाकृति में भाषा के विलोपन की प्रक्रिया को समझना होगा। ‘जड़ों की ओर वापसी’ की बात कहीं अन्यत्र लागू होती होगी। मैं अपने लेखन को जड़ों से निकला ही मानता हूँ। आख़िर मेरा साहित्य जड़मूल से संपृक्त जनों के लिए है तो, उन्हीं की भंगिमा भी उसमें होगी।

आपकी दृष्टि में भाषा क्या है?
वैसे तो, भाषा अभिव्यक्ति का एक साधन है किंतु उसकी भूमिका इतिहास और संस्कृति के वहन की भी है, इसलिए अपनी मातृभाषा में साहित्य रचने का प्रयोजन ही अनन्य है। चुंकि इसमें हमारी स्मृतियां व बिम्ब होते हैं। अतः इसका सौन्दर्य एक आत्मियता और निकटता की सर्जना करता है। साहित्य-कला हमारे अंतः विवेक व संवेदन की आवश्यक फलश्रुति है। हम सभी अनुभव करते हैं कि समाज का पतनोन्मुख हिस्सा हमारे अंतस व ‘इयता’ पर ग़ैर-ज़रूरी दबाव डालता है कि साहित्य का अंतः करण समाज का उपनिवेश नहीं। बाज़ार के नाकारात्मक प्रभाव और राजनीतिक दर्शनों की छायाएं साहित्य की आत्मा को अतिक्रांत करने की महासंवेदना है।

जन प्रेषण के लिए आपका मन्तव्य क्या है?
भोजपुरी, अंग्रेज़ी की सांवेदनिक व सामाजिक पृष्ठभूमि अलग-अलग है। भाषा में वास्तविक जन प्रेषण की यथास्थितिवाद को चुनौती है। भोजपुरी भाषा में बोलने वाले यहां नगर-महानगर, हर कहीं हैं। यानी कि यह जीवंत भाषा है और यह महज़ शासन व किताब की भाषा नहीं है। मैं वही गाता हूँ, जो जनता गाती है, मेरा मन गाता है। मेरी रचना की विषय-वस्तु व बिम्ब आत्म व जन संघर्ष से लिए गए हैं। आत्म व जन संघर्ष के बीच एक गहरा सम्बंध है। संस्थानिक व जन स्तर पर सांस्कृतिक विनिमय अत्यंत आवश्यक है।

वर्तमान परिदृश्य में अंग्रेज़ी भाषा के विषय पर आपका क्या दृष्टिकोण है?
होता क्या है, कि जिस शिक्षा और संस्कृति को पश्चिमी आधार और अंग्रेज़ी के बल पर हम समझने की कोशिश करते हैं, उसमें अपनी जड़ें पूरी तरह आत्मसात नहीं होते इसलिए जब कभी बड़े सांस्कृतिक व सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता होती है तो, वह दृष्टिकोण काम का नहीं होता। किसान के अंगोछे की संस्कृति अंग्रेज़ी में नहीं ला सकते, ऐसा मेरा मानना है। राष्ट्र द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं में उपलब्ध संस्कृति और इतिहास की समृद्ध राष्ट्रीय परम्पराओं का प्रयोग कर के ही शक्ति पाई जा सकती है। हमारा वास्तविक साहित्य तभी विकसित हो सकता है, जब तक भारत के किसान समुदाय की समृद्धि, संस्कृति, भाषा और इतिहास की तह हमें अपनी जड़ों के लिए प्रवेश करे। यहां किसान समुदाय ही ऐसा है, जो अधिक संख्या में है। दुर्भाग्य से आज़ उसकी आवाज़ बहुत कम सुनी जा रही है और वह आत्महत्या करने को विवश है। रचनाकर्म करते समय मुझे अतीत की समस्त ध्वनियां, चीख, प्रेम, संघर्ष के स्वर चाहिए और ये स्वर एक ऐसी भाषा में नहीं हो सकते, जिसकी वास्तविक जड़ें भारत की धरती में न हों। प्रत्येक व्यक्ति की संस्कृति के सकारात्मक तत्वों को मिलाकर ही मानवीय मूल्यों और परम्परा का ऐसा आधार तैयार हो सकता है जो, वैश्विक प्रभाव छोड़ सके। आर्थिक व राजनैतिक मुक्ति, वास्तविक मुक्ति की बुनियादी शर्त है तो, उस आर्थिक और राजनैतिक की यात्रा नापने का पैमाना हमारी संस्कृति, मूल्य और दृष्टिकोण है।

 संस्कृति सम्बंध में आपका क्या विचार है?
 अनेक बार देखा गया है कि संस्कृति के प्रति मानव की रचना ने पश्चिमी हस्तक्षेप हद से ज़्यादा बढ़ गया है। पश्चिम के मूल्य हमारे मूल्य नहीं हो सकते, लेकिन सौन्दर्य के विभिन्न तंतुओं ने हमारे ऊपर उसके आरोपित करने की सूक्ष्म प्रक्रिया ज़ारी है। हम इस स्थिति में पहुंचने लगे हैं कि साहित्य, जीवन व सामाजिक संघर्षों के बारे में एक ख़ास दृष्टिकोण-सा बनता जा रहा है जो, हमारी जड़ों से नहीं आता। हम साहित्य की व्याख्या पश्चिमी धुरी पर खड़े होकर करते हैं तथा दुनिया को वैसा ही दिखाने में लग जाते हैं। यह किसी भी तरह उचित नहीं है।

आपके अनुसार साहित्य क्या है?
 साहित्य का एक गुण आत्मसंवर्धन है, जिसमें आलोचनात्मक मानसिकता भी सम्मलित है। मैं भोजपुरी व हिन्दी के माध्यम से समग्र परिवेश का आलोचनात्मक ढंग से आकलन और मूल्यांकन कर पाता हूँ। साथ ही इस प्रक्रिया में उपलब्ध उपकरणों की सहायता से दूसरी संस्कृतियों, दुनिया का आकलन व मूल्यांकन भी। हम एक स्वतंत्र देश में रहते हैं और किसी भी स्वतंत्र देश को अपनी संस्कृति के अध्ययन से जुड़ा अत्यंत महत्त्वपूर्ण निर्णय का काम दूसरे देशों के बदले स्वयं करना चाहिए। राष्ट्रीय संस्कृति को पश्चिमी-अभिमुखी निर्णयों का गुलाम बनाना देश के लोगों के प्रति विश्वासघात है। उसमें हमारे संघर्ष का सौन्दर्यबोध नहीं होगा तथा मनुष्य की रचनात्मकता की शक्ति का निरादर भी। इतिहास के हमारे अनुभवों की अभिव्यक्ति हमारे अपने साहित्य में यहां की माटी की सुगंध से ही सम्भव है। मेरे मन की रचना में विविध भाषा-साहित्य का संघनन है। उसमें अपनी धरती है। भाषा की सहजता मुझमें सम्पोषित होती है न कि कट्टरता, हिंसाचारी व लोक विरुद्ध होती है। मेरा साहित्य संवादधर्मी व प्रीतिकर्मी है। मातृभाषा में संस्कृति की सर्जनात्मकता की सहजता सम्भव है।

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