देश के सर्वांगीण विकास की दिशा और दशा

 सिद्धेश राय
मुख्य संपादक, द्वारका परिचय 

हम भारत के लोग भारत का सर्वांगीण विकास चाहते हैं, तभी गणतंत्रात्मक व्यवस्था में विश्वास करते हुए जन प्रतिनिधियों का चुनाव कर उसके हाथ में देश की बागडोर सौंप देते हैं। ऐसा इसलिए ताकि राष्ट्र का चहुमुखी विकास सामाजिक, आर्थिक व वैधानिक संतुलन के साथ हो सके हो सके। इसी उम्मीद के साथ देशवासी अपने कत्र्तव्यों का पालन करते हुए सरकार की गतिविधियों की ओर ताकते रहते हैं, परंतु इन सकारात्मक उम्मीदों के बदले मिलने वाले परिणाम चैकने वाले होते हैं। किंतु ऐसा लगता है कि देश में विकास और जीवन के बीच कोई सामन्जस्य ही नहीं। मन में सैकड़ों प्रश्न क्रौंधने लगते हैं, जैसे क्या हो रहा है? हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं? वैसे तो हम जानते ही हैं की घोटालों और अपराधों का बोलबाला है। मंत्री हो या संतरी सब मौका मिलते ही करोड़ों-करोड़ों रुपए निवाले की तरह निगलने में देर नहीं लगाते।

यहाँ हम विषयांतर नहीं होना चाहते हैं। हम आपका ध्यान देश के सरकारी नीतिगत अव्यवस्था की ओर आकर्षित करना चाहते हैं। एक प्रतिष्ठित दैनिक में प्रकाशित ख़बर कि भारत सुपर कम्प्यूटर बनाने वाले देशों की दौड़ में शामिल हो गया है। प्रकाशित अंश कि ‘‘आज से पचीस साल पहले अपना पहला सुपर कम्प्यूटर बना लेने के बावजूद भारत इस दौर में अपने पड़ोसी चीन से काफी पीछे रह गया है। भारत सरकार ने एक बार फिर इस कार्यक्रम को गति देने का फैसला किया है और सुपर कम्प्यूटर निर्माण एवं शोध परियोजना के लिए पाँच हजार करोड़ रुपए की भारी भरकम राशि मंजूर की है। देश में किसी शोध परियोजना पर खर्च की जाने वाली यह अब तक की सबसे बारी राशि है। पहले दो साल में पेटा स्केल क्षमता पाने के लिए पाँच हजार करोड़ रुपए एकसा स्केल क्षमता हासिल करने खर्च होंगे।’’

वस्तुतः विज्ञान युग को हम बौद्धिक लोग समझते हैं। वैज्ञानिक विकास की सराहना भी करते हैं तथा सरकार की इस विकसवादी नीति से कोई गुरेज नहीं पर यह भी सोचना होगा की विकास की प्रक्रिया असंतुलित न हो। एकतरफा न हो। दुखद न हो परंतु पीड़ा के साथ स्वीकारना पड़ेगा कि वास्तव में ऐसा ही है जान पड़ता है। एक दैनिक पत्र हिंदुस्तान तरीख 28 जनवरी को प्रकाशित समाचार की ओर ध्यान आकर्षित करे तो जान पाते हैं कि ‘‘बढ़ती लागत, घटती आमदनी और कर्ज किसानों के आत्महत्या के लिए जिम्मेदार हैं।’’ शीर्षक - ‘‘हर घंटे दो किसान दे रहे हैं जान” ने हमारी आत्मा को झकझोर दिया है। जिस देश को किसानों का देश कहा जाता है। जिसके उपजाए अन्न खाकर ही हम सुपर कम्प्यूटर चलाएँगे, वे ही अभाव व त्रासद से अपनी स्वयं की इहलीला समाप्त कर रहे हैं। धिक्कार है। रिपोर्ताज में हरकिशन शर्मा लिखते हैं कि ‘‘हालत का अंदाजा महज इस बात से लगाया जा सकता है की हर घंटे दो किसान आत्महत्या कर रहे हैं। इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि इस संख्या से करीब चार गुना ज्यादा किसान आत्महत्या की कोशिश करते हैं।

वास्तव में ऐसी स्थिति उन नीति निर्माता की अदूरदर्शिता, शोषक व भावना शून्य राजनीतिक तानाशाहों की देन है, जिनके घरों में कुत्ते भी दूध पीकर वातानुकूलित वाहनों पर घूमने का सौभाग्य पाते हैं। देश में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश में हजारों किसानों ने आत्महत्या की है। इन किसानों की ऐसी स्थिति के लिए केंद्र व राज्य सरकार दोनों ही जिम्मेदार हैं। दोनों ही उनके प्रतिनिधि हैं। उत्तर प्रदेश में करोड़ों-करोड़ों रुपए पार्कों व नेताओं की मूर्तियाँ बनाने में लगाई गईं परंतु उन्हीं खज़ानों में से वहाँ के 548 किसानों को सुविधा देकर आत्महत्या करने से नहीं बचाया जा सका। किसानों की ऐसी स्थिति का अकड़ा राष्ट्रिय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एन.सी.ई.आर.बी) से सहज लिया जा सकता है। इसकी वर्तमान सांख्यकीय आंकड़ों के मुताबिक देशभर में वर्ष 2010 में 15,964 (पंद्रह हजार नौ सौ चौसठ) किसानों ने आत्महत्या की है।

कहने की आवश्यकता नहीं की आम जनता यह जानती है कि ऐसे आंकड़े कम कर ही पेश किए जाते हैं, जिसे वैधानिक तौरपर साबित कर कहना आम लोगों के बूते से बाहर की बात होती है। जो भी हो स्थिति भयावह है। दुखद व चिंतनीय है। हमारा अन्नदाता अभाव से पीडि़त हो चुपचाप मौत को गले लगा रहा है। किसी से कुछ नहीं कह रहा है। पर इतना तो जरूर है कि सुपर कम्प्यूटर की दौड़ में हमें हमारा दूसरा चेहरा दिखा रहा है। हम यह भी मानते हैं की देश तरक्की कर रहा है। आय के स्रोत बढ़ रहे हैं, प्रतिव्यक्ति आय भी बढ़ी है, उद्योग का विकास भी हुआ है पर हमें यह नहीं भूलना होगा की घोटाला व भ्रष्टाचार का बाज़ार भी गरम हुआ है। हजारों करोड़ों का घोटाला आज आम बात है। पूंजीपति और भी पूंजीपति हो रहे हैं, उनका साम्राज्य बड़ा होता जा रहा है।

समाज का आर्थिक वर्गीकरण हो गया है। धन की शक्ति के बल पर लोकतन्त्र  प्रभावित किए जा रहे हैं। तभी तो वर्तमान मे कई राज्यों में हो रहे चुनाव में बड़ी मात्र में अवैध धन पकड़े जा रहे हैं। चुनाव आयोग ने अब तक 42.78 करोड़ रुपए की नगदी पकड़ी है। जिनमें उत्तरप्रदेश में 29.65, पंजाब में 12.11 करोड़, उत्तराखंड में 55 लाख तथा मणिपुर मे 47 लाख रुपए शामिल हैं। हम जानते हैं कि ये मामूली आंकड़ें हैं। इसके सैकड़ों गुना रुपए व अवैध प्रमाद साधनों का दुरुपयोग होना आम बात है। इस आंकड़े से साबित तो हो ही जाता है की देश समृद्ध है। धन बहुत है पर किसके पास? क्या साफ कहना सही नहीं की कुछ नेताओं, सहयोगी पूँजीपतियों व अवैध धंधों के आकाओं के पास। क्या इन्हीं पकड़े गए अवैध पैसों में से थोड़ा-सा उन किसानों के कृषि कार्य के लिए सुरक्षित आवंटित न कर दिया जाए ताकि समाज को कलंकित होने से बचाया जा सके।

वस्तुतः कभी-कभी समझना मुश्किल हो जाता है कि हमारी नीति कितनी विकसोन्मुख है, हमारी दिशा कितनी सकारात्मक है। उपर्युक्त विषयों पर हमने समाज के कुछ बौद्धिक वर्गों की राय ली दिल्ली स्थित पूर्वांचल एकता मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष शिवजी सिंह ने किसानों की ऐसी दुखद दशा पर दुख व्यक्त करते हुए इसके लिए राजनेताओं को जिम्मेदार ठहराया और कहा कि हमारे किसान बाढ़-सुखाड़ व बढती कीमतों से त्रस्त हैं। ऐसे में देश का विकास संभव नहीं। सरकार की अव्यवस्थित नीति को किसानों की गिरती हालत व आत्महत्या के लिए जिम्मेदार मानने वालों में उच्च न्यायालय के अधिवक्ता विशाल सिन्हा तथा विहार नवनिर्माण समिति के अध्यक्ष कमल कर्मकार प्रमुख हैं। एक तरफ देश में तकनीकी एवं वैज्ञानिक विकास, अवैध धन का चुनावी दुरुपयोग तथा दूसरी तरफ किसानों की आत्महत्या जैसी स्थिति पर पूछने पर ‘भोजपुरी जिंदगी’ के सम्पादक संतोष पटेल ने माना कि तकनीकी विकास के नाम पर किसानों की अनदेखी देश को भ्रमित करने जैसा है।

अभी-अभी 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला मामले में जस्टिस ए.के.गांगुली ने कहा कि आज हमारे देश में भ्रष्टाचार न केवल संवैधानिक व्यवस्था की अवधारणा के लिए बड़ा ख़तरा बन गया है, बल्कि यह लोकतंत्र की बुनियाद तथा कानून के शासन के लिए भी ख़तरा है। हमारे सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार का स्तर देश में समाजवादी, धर्मनिर्पेक्ष व लोकतंत्रिक गणराज्य की अवधारणा के बिल्कुल उलट है। यह उस व्यवस्था में फिट नहीं बैठता। इसपर कोई विवाद नहीं है कि जहां भ्रष्टाचार होता है वहीं अधिकार ख़त्म हो जाता है।’’ ऐसे में ज़रूरत है कि वैधानिक व्यवस्था पर काबिज़ लोग निद्रा को तोड़ें और देश के जनता की भावनाओं और उनके सार्वभौम अधिकारों का सम्मान कर कर्त्तव्य निष्ठा का परिचय दें।

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