बिकाऊ है भारत सरकार, बोलो खरीदोगे ?

अरविन्द केजरीवाल 
(प्रमुख आरटीआई एक्टिविस्ट एवं सामाजिक कार्यकर्ता)


पहले आयकर विभाग में काम किया करता था। 90 के दशक के अंत में आयकर विभाग ने कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सर्वे किया। सर्वे में ये कंपनियां रंगे हाथों टैक्स की चोरी करते पायी गयीं, उन्होंने सीधे अपना जुर्म कबूल किया और बिना कोई अपील किये सारा टैक्स जमा कर दिया। अगर ये लोग किसी और देश में होते तो अभी तक उनके वरिष्ठ अधिकारियों को जेल भेज दिया गया होता। ऐसी ही एक कम्पनी पर सर्वे के दौरान उस कम्पनी के विदेशी मुखिया ने आयकर टीम को धमकी दी - ‘‘भारत एक बहुत गरीब देश है। हम आपके देश में आपकी मदद करने आये हैं। आपको पता नहीं हम कितने ताकतवर हैं। हम चाहें तो आपकी संसद से कोई भी कानून पारित करा सकते हैं। हम आप लोगों का तबादला भी करा सकते हैं।’’ इसके कुछ दिन बाद ही इस आयकर टीम के एक हेड का तबादला कर दिया गया।

उस वक्त मैंने उस विदेशी की बातों पर ज्यादा गौर नहीं किया। मैंने सोचा कि शायद वो आयकर सर्वे से परेशान होकर बोल रहा था, लेकिन पिछले कुछ सालों से मुझे धीरे-धीरे उसकी बातों में सच्चाई नजर आने लगी है।

जुलाई 2008 में यू.पी.ए. सरकार को संसद में अपना बहुमत साबित करना था। खुलेआम सांसदों की खरीद-फरोख्त चल रही थी। कुछ टी.वी. चैनलों ने सांसदों को पैसे लेकर खुलेआम बिकते दिखाया। उन तस्वीरों ने इस देश की आत्मा को हिला दिया। अगर सांसद इस तरह से बिक सकते हैं तो हमारे वोट की क्या कीमत रह जाती है। मैं जिस किसी सांसद को वोट करूँ, जीतने के बाद वह पैसे के लिए किसी भी पार्टी में जा सकता है। दूसरे, आज अपनी सरकार बचाने के लिए इस देश की एक पार्टी उन्हें खरीद रही है। कल को उन्हें कोई और देश भी खरीद सकता है। जैसे अमरीका, पाकिस्तान इत्यादि। हो सकता है ऐसा हो भी रहा हो, किसे पता? यह सोच कर पूरे शरीर में सिहरन दौड़ पड़ी- क्या हम एक आजाद देश के नागरिक हैं? क्या हमारे देश की संसद सभी कानून इस देश के लोगों के हित के लिए ही बनाती है?

अभी कुछ दिन पहले जब अखबारों में संसद में हाल ही में प्रस्तुत न्यूक्लीयर सिविल लायबिलिटी बिल के बारे में पढ़ा तो सभी डर सच साबित होते नजर आने लगे। यह बिल कहता है कि कोई विदेशी कम्पनी भारत में अगर कोई परमाणु संयंत्र लगाती है और यदि उस संयंत्र में कोई दुर्घटना हो जाती है तो उस कम्पनी की जिम्मेदारी केवल 1500 करोड़ रुपये तक की होगी। दुनियाभर में जब भी कभी परमाणु हादसा हुआ तो हजारों लोगों की जान गयी और हजारों करोड़ का नुकसान हुआ।
भोपाल गैस त्रासदी में ही पीड़ित लोगों को अभी तक 2200 करोड़ रुपया मिला है जो कि काफी कम माना जा रहा है। ऐसे में 1500 करोड़ रुपये तो कुछ भी नहीं होते। एक परमाणु हादसा न जाने कितने भोपाल के बराबर होगा? इसी बिल में आगे लिखा है कि उस कम्पनी के खिलाफ कोई आपराधिक मामला भी दर्ज नहीं किया जायेगा और कोई मुकदमा नहीं चलाया जायेगा। कोई पुलिस केस भी नहीं होगा। बस 1500 करोड़ रुपये लेकर उस कम्पनी को छोड़ दिया जायेगा।

यह कानून पढ़कर ऐसा लगता है कि इस देश के लोगों की जिन्दगियों को कौड़ियों के भाव बेचा जा रहा है। साफ-साफ जाहिर है कि यह कानून इस देश के लोगों की जिन्दगियों को दांव पर लगाकर विदेशी कम्पनियों को फायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा है। हमारी संसद ऐसा क्यों कर रही है? यकीनन या तो हमारे सांसदों पर किसी तरह का दबाव है या कुछ सांसद या पार्टियां विदेशी कम्पनियों के हाथों बिक गयी हैं।

भोपाल गैस त्रासदी के हाल ही के निर्णय के बाद अखबारों में ढेरों खबरें छप रही हैं कि किस तरह भोपाल के लोगों के हत्यारे को हमारे देश के उच्च नेताओं ने भोपाल त्रासदी के कुछ दिनों के बाद ही राज्य अतिथि सा सम्मान दिया था और उसे भारत से भागने में पूरी मदद की थी।

इस सब बातों को देखकर मन में प्रश्न खड़े होते हैं---क्या भारत सुरक्षित हाथों में है? क्या हम अपनी जिन्दगी और अपना भविष्य इन कुछ नेताओं और अधिकारियों के हाथों में सुरक्षित देखते हैं?

ऐसा नहीं है कि हमारी सरकारों पर केवल विदेशी कम्पनियों या विदेशी सरकारों का ही दबाव है। पैसे के लिए हमारी सरकारें कुछ भी कर सकती हैं। कितने ही मंत्री और अफसर औद्योगिक घरानों के हाथ की कठपुतली बन गये हैं। कुछ औद्योगिक घरानों का वर्चस्व बहुत ज्यादा बढ़ गया है। अभी हाल ही में एक फोन टैपिंग मामले में खुलासा हुआ था कि मौजूदा सरकार के कुछ मंत्रियों के बनने का निर्णय हमारे प्रधानमंत्री ने नहीं बल्कि कुछ औद्योगिक घरानों ने लिया था। अब तो ये खुली बात हो गयी है कि कौन सा नेता या अफसर किस घराने के साथ है। खुलकर ये लोग साथ घूमते हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि कुछ राज्यों की सरकारें और केन्द्र सरकार के कुछ मंत्रालय ये औद्योगिक घराने ही चला रहे हैं।

यही कारण है कि हमारे देश की खदानों को इतने सस्ते में इन औद्योगिक घरानों को बेचा जा रहा है। जैसे आयरन ओर की खदानें लेने वाली कम्पनियां सरकार को महज 27 रुपये प्रति टन रॉयल्टी देती हैं। उसी आयरन ओर को ये कम्पनियां बाजार में 6000 रुपये प्रति टन के हिसाब से बेचती हैं। क्या यह सीधे-सीधे देश की सम्पत्ति की लूट नहीं है?

इसी तरह से औने-पौने दामों में वनों को बेचा जा रहा है, नदियों को बेचा जा रहा है, लोगों की जमीनों को छीन-छीन कर कम्पनियों को औने-पौने दामों में बेचा जा रहा है।

इन सब उदाहरणों से एक बात तो साफ है कि इन पार्टियों, नेताओं और अफसरों के हाथ में हमारे देश के प्राकृतिक संसाधन और हमारे देश की सम्पदा खतरे में है। जल्द ही कुछ नहीं किया गया तो ये लोग मिलकर सब कुछ बेच डालेंगे।
इन सब को देखकर भारतीय राजनीति और जनतंत्र पर एक बहुत बड़ा सवालिया निशान लगता है। सभी पार्टियों का चरित्र एक ही है। हम किसी भी नेता या किसी भी पार्टी को वोट दें, उसका कोई मतलब नहीं रह जाता।
पिछले 60 सालों में हम हर पार्टी, हर नेता को आजमा कर देख चुके हैं। लेकिन कोई सुधार नहीं हुआ। इससे एक चीज तो साफ है कि केवल पार्टियाँ और नेता बदल देने से बात नहीं बनने वाली। हमें कुछ और करना पड़ेगा।

हम अपने संगठन परिवर्तन के जरिये पिछले दस सालों में विभिन्न मुद्दों पर काम करते रहे हैं। कभी राशन व्यवस्था पर, कभी पानी के निजीकरण पर, कभी विकास कार्यों में भ्रष्टाचार को लेकर इत्यादि। आंशिक सफलता भी मिली। लेकिन जल्द ही यह आभास होने लगा कि यह सफलता क्षणिक और भ्रामक है। किसी मुद्दे पर सफलता मिलती जब तक हम उस क्षेत्र में उस मुद्दे पर काम कर रहे होते, ऐसा लगता कि कुछ सुधार हुआ है। जैसे ही हम किसी दूसरे मुद्दे को पकड़ते, पिछला मुद्दा पहले से भी बुरे हाल में हो जाता। धीरे-धीरे लगने लगा कि देश भर में कितने मुद्दों पर काम करेंगे, कहां-कहां काम करेंगे। धीरे-धीरे यह भी समझ में आने लगा कि इस सभी समस्याओं की जड़ में ठोस राजनीति है। क्योंकि इन सब मुद्दों पर पार्टियां और नेता भ्रष्ट और आपराधिक तत्वों के साथ हैं और जनता का किसी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं है। मसलन राशन की व्यवस्था को ही लीजिए। राशन चोरी करने वालों को पूरा-पूरा पार्टियों और नेताओं का संरक्षण है। यदि कोई राशन वाला चोरी करता है तो हम खाद्य कर्मचारी या खाद्य आयुक्त या खाद्य मंत्री से शिकायत करते हैं। पर ये सब तो उस चोरी में सीधे रूप से मिले हुए हैं। उस चोरी का एक बड़ा हिस्सा इन सब तक पहुंचता है। तो उन्हीं को शिकायत करके क्या हम न्याय की उम्मीद कर सकते हैं। यदि किसी जगह मीडिया का या जनता का बहुत दबाव बनता है तो दिखावे मात्र के लिए कुछ राशन वालों की दुकानें निरस्त कर दी जाती हैं। जब जनता का दबाव कम हो जाता है तो रिश्वत खाकर फिर से वो दुकानें बहाल कर दी जाती हैं।

इस पूरे तमाशे में जनता के पास कोई ताकत नहीं है। जनता केवल चोरों की शिकायत कर सकती है कि कृपया अपने खिलाफ कार्रवाई कीजिए। जो होने वाली बात नहीं है।

सीधे-सीधे जनता को व्यवस्था पर नियंत्रण देना होगा जिसमें जनता निर्णय ले और नेता व अफसर उन निर्णयों का पालन करें।
क्या ऐसा हो सकता है? क्या 120 करोड़ लोगों को कानूनन निर्णय लेने का अधिकार दिया जा सकता है?

वेसे तो जनतंत्र में जनता ही मालिक होती है। जनता ने ही संसद और सरकारों को जनहित के लिए निर्णय लेने का अधिकार दिया है। संसद, विधानसभाओं और सरकारों ने इस अधिकारों का जमकर दुरुपयोग किया है। उन्होंने पैसे खाकर खुलेआम और बेशर्मी से जनता को और जनहित को बेच डाला है और इस लूट में लगभग सभी पार्टियाँ हिस्सेदार हैं। क्या समय आ गया है कि जनता नेताओं, अफसरों और पार्टियों से अपने बारे में निर्णय लेने के अधिकार वापस ले ले?

समय बहुत कम है। देश की सत्ता और देश के साधन बहुत तेजी से देशी-विदेशी कम्पनियों के हाथों में जा रहे हैं। जल्द कुछ नहीं किया गया तो बहुत देर हो चुकी होगी। 



(पीएनएन)

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