सड़क किनारे वृक्ष कतारें बम्बा तक ले जावें करते नृत्य मयूर, कोयलें कुँहक-कुँहक गावें, सांझ ढले संध्यां की लाली कुम-कुम सी सजती है नई बहु सी पुरवईयाँ कुछ सहम-सहम चलती है, शीतल बहे समीर छेड़ती घूघंटपट है बीते युग की याद दिलाते घट पनघट हैं, चीर बीहड़ों को दक्खिन में जमुना जी बहती है उत्तर में सेंगर सरिता कुछ मंद-मंद चलती है, माता रजनी पिता उदय सिंह के नैनों का तारा इसी गाँव की पावन रज ने जिसे सवाँरा, जीवन पथ की कठिन डगर में बिछुड़ गया है मेरा गाँव कभी - कभी आना-जाना है तीरथ जैसा मेरा गाँव।